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________________ भगवई असंखेज्जेहिं । केवतिएहिं अणंतेहिं । केवतिएहिं पोग्गलत्थिकायपदेसेहिं ? जीवत्थिकायपदेसेहिं ? ७३. अधम्मत्थिकाए णं भंते ! अनन्तैः । अणतेहिं । केवतिएहिं अद्धासमएहिं ? कियद्भिः अद्धासमयैः ? सिय पुट्ठे, सिय नो पुट्ठे । जइ पुट्ठे स्यात् स्पृष्टः स्यात् नो स्पृष्टः । यदि नियमा अणतेहिं ॥ स्पृष्टः नियमात् अनन्तैः । haतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे ? असंखेज्जेहिं । केवतिएहिं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं ? नत्थि एक्केण वि । सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । एवं एएणं गमएणं सव्वे वि सट्टाणए नत्थि एक्केण वि पुट्ठा, परट्ठाणए आदिल्लएहिं तिहिं असंखेज्जेहिं भाणियव्वं, पच्छिल्लएसु तिसु अणंता भाणियव्वा जाव अद्धासमयो त्ति जाव केवतिएहिं अद्धासमएहिं पुढे ? नत्थि एक्केण वि ॥ १४१ असंख्येयैः । कियद्भिः जीवास्तिकायप्रदेश: ? अनन्तैः । कियद्भिः पुद्गलास्तिकायप्रदेशैः ? Jain Education International अधर्मास्तिकायः भदन्त ! कियद्भिः धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः ? असंख्येयैः । कियद्भिः अधर्मास्तिकायप्रदेशैः ? नास्ति एकेनापि । शेषं यथा धर्मास्तिकायस्य । एवम् एतेन गमकेन सर्वेऽपि स्वस्थानके नास्ति एकेनापि स्पृष्टाः परस्थानके आदिमैः त्रिभिः असंख्येयैः भणितव्यम्, पाश्चात्येषु त्रिषु अनन्ताः भणितव्याः यावत् अद्धासमयः इति यावत् कियद्भिः अद्धासमयैः स्पृष्टः ? नास्ति एकेनापि । भाष्य १. सूत्र ७२-७३ पूर्व आलापक में प्रदेश- स्पर्श के नियम बतलाए गए हैं। प्रस्तुत दो सूत्रों में अस्तिकाय की स्पर्शना विवक्षित है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और लोकाकाश-तीनों के प्रदेश तुल्य हैं- ये तीनों असंख्य प्रदेश वाले हैं। " धर्मास्तिकाय लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर अवगाढ है इसलिए वह धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट नहीं होता। जहां धर्मास्तिकाय है वहां अधर्मास्तिकाय है। इस अपेक्षा से धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय के असंख्य प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। एक जीव के प्रदेश असंख्य होते हैं। यहां अनंत प्रदेश का उल्लेख जीवास्तिकाय की अपेक्षा से है। जीवास्तिकाय अनंत जीवों का समुच्चय है। १. ठाणं ४/४६५ - चत्तारि पएसग्गेणं तुल्ला पण्णत्ता, तं जहा धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, लोगागासे, एगजीवे । २. भ. २ / ४६ । ३. भ. २ / १२८ । ४. भ. वृ. १३/७३ - केवलं यत्र धर्मास्तिकायादिः तत्प्रदेशैरेव चिन्त्यते तत्स्वस्थान- मितरच परस्थानम् । - श. १३ : उ. ४ : सू. ७३ असंख्येय से । जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट हैं ? अनंत से। पुद्गलास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट For Private & Personal Use Only हैं ? अनंत से। कितने अद्धासमय से स्पृष्ट है ? स्यात् स्पृष्ट है, स्यात् स्पृष्ट नहीं है। यदि स्पृष्ट है तो नियमतः अनंत से। अधर्मास्तिकाय की धर्मास्तिकाय की भांति वक्तव्यता । आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय इन सबके लिए वही नियम लागू होता है। ये अपने स्थान में अपने किसी भी एक प्रदेश से स्पृष्ट नहीं होते। पर स्थान के नियम इस प्रकार हैं धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और लोकाकाश के प्रदेश असंख्य हैं इसलिए इनके स्पर्श में असंख्य प्रदेशों का स्पर्श वक्तव्य है। जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय के प्रदेश अनंत हैं इसलिए इनके स्पर्श में अनंत प्रदेशों का स्पर्श वक्तव्य है।' यहां अद्धासमय निरुपचरित है । अतीत का समय नष्ट हो जाता है और अनागत समय उत्पन्न नहीं होता। इस अवस्था में स्वस्थान नियम के अनुसार एक समय दूसरे समय से स्पृष्ट नहीं होता । " ५. वही, परस्थाने च धर्मास्तिकायादित्रयसूत्रेषु चानन्तैः प्रदेशैः स्पृष्ट इति वाच्यं, असंख्यातप्रदेशत्वात् धर्माधर्मास्तिकाययोस्तत्संस्पृष्टाकाशस्य च, जीवादित्रयसूत्रेषु चानन्तैः प्रदेशैः स्पृष्ट इति वाच्यं अनंतप्रेदशत्वात्तेषामिति । ७३. भंते! अधर्मास्तिकाय धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? असंख्येय से । अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? एक से भी नहीं। शेष की धर्मास्तिकाय की भांति वक्तव्यता। इस प्रकार इस गमक के द्वारा सभी स्वस्थान की अपेक्षा एक प्रदेश से भी स्पृष्ट नहीं हैं, परस्थान की अपेक्षा आदि तीन (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय) में असंख्येय वक्तव्य है। अंतिम तीन में अनंत वक्तव्य है यावत् अद्धासमय यावत् कितने अद्धासमयों से स्पृष्ट है ? एक से भी नहीं। ६. वही, - निरुपचरितस्याद्धासमयस्यैकस्यैवभावात् अतीतानागतसमययोश्च विनष्टानुत्पन्नत्वेनासत्त्वान्न समयान्तरेण स्पृष्टताऽस्तीति । www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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