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________________ भगवई १३६ श. १३ : उ. ४ : सू. ७० हिएणं। सेसं जहा संखेज्जाणं जाव नियम अणतेहिं॥ शेषं यथा संख्येयानां यावत् नियमम् अनन्तैः। से। शेष संख्येय की भांति वक्तव्यता यावत् नियमतः अनंत से। ७०. अणंता भंते ! पोग्गलत्थिकायपदेसा अनन्ताः भदन्त! पुद्गलास्तिकाय- ७०. भंते! पुद्गलास्तिकाय के अनंत प्रदेश केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पट्टा ? प्रदेशाः कियद्भिः धर्मास्तिकायप्रदेश: धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट स्पृष्टाः? एवं जहा असंखेज्जा तहा अणंता वि एवं यथा असंख्येयाः तथा अनन्ताः अपि इस प्रकार जैसे असंख्येय की वक्तव्यता निरवसेसं॥ निरवशेषम्। वैसे ही अनंत की निरवशेष वक्तव्यता। भाष्य द्विप्रदेशी स्कंध उत्कृष्ट पद में धर्मास्तिकाय के बारह प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। दो आकाशास्तिकाय के दो प्रदेशों में अवगाढ है, इस प्रकार अवगाढ़ प्रदेश दो, नीचे दो, ऊपर दो, पूर्व में दो, पश्चिम में दो, दक्षिण और उत्तर में एक-एक। इस प्रकार वह धर्मास्तिकाय के बारह प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। द्रष्टव्य स्थापना १. सूत्र ६६-७० अभयदेवसूरि ने द्विप्रदेशी आदि स्कंधों के विषय में चूर्णिकार और वृत्तिकार के मत प्रस्तुत किए हैं। चूर्णिकार के अनुसार द्विप्रदेशी स्कंध लोकान्तवर्ती एक आकाश प्रदेश में समवगाढ है। वह आकाश प्रदेश द्विप्रदेशी स्कंध के दोनों प्रदेशों को अवगाहन दे रहा है। एक ही आकाश-प्रदेश को नय दृष्टि से विभक्त मानने पर वह द्विप्रदेशी स्कंध धर्मास्तिकाय के दो प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। उसके ऊपर अथवा नीचे जो धर्मास्तिकाय का प्रदेश है, उसका भी नय दृष्टि से भेद मान लेने पर वह दो परमाणुओं का स्पर्श करता है तथा पार्श्ववर्ती धर्मास्तिकाय के दो प्रदेश एक-एक अणु का स्पर्श करते हैं। इस प्रकार द्विप्रदेशी स्कंध जघन्य-पद में धर्मास्तिकाय के छह प्रदेशों से स्पृष्ट हो जाता है। यदि नय मत का आश्रय न लिया जाए तो व्यणुक स्कंध जघन्यतः धर्मास्तिकाय के चार प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। वृत्तिकार का अभिमत यह है-दो बिंदुओं की स्थापना करें और उन्हें दो परमाणु मान लें। अर्वाचीन परमाणु धर्मास्तिकाय के अर्वाक् स्थित प्रदेश से स्पृष्ट होता है। परभागवर्ती परमाणु परतः स्थित धर्मास्तिकाय के प्रदेश से स्पृष्ट होता है-इस प्रकार दो से स्पृष्ट तथा जिन दो प्रदेशों के मध्य में परमाणु स्थापित है उनमें से एक से एक, दूसरे से दूसरा स्पृष्ट-इस प्रकार चार से स्पृष्ट। दो प्रदेशों से अवगाढ होने के कारण स्पष्ट है। इस प्रकार संयोग करने पर द्विप्रदेशी स्कंध धर्मास्तिकाय के छह प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। द्रष्टव्य स्थापना द्विप्रदेशी स्कंध आकाशास्तिकाय के बारह प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। लोकान्त में भी आकाश-प्रदेश विद्यमान है इसलिए इसका जघन्य पद नहीं है। चूर्णिकार के मतानुसार एक आकाश-प्रदेश में त्रिप्रदेशी स्कंध अवगाढ है। उसे तीन भागों में विभक्त किया जाए। इस प्रकार अवगाढ प्रदेश तीन, अधोवर्ती अथवा ऊपरिवर्ती तीन, पार्श्ववर्ती दो-कुल मिलाकर त्रिप्रदेशी स्कंध धर्मास्तिकाय के आठ प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। जयाचार्य ने वृत्तिकार के मत का अनुसरण कर लिखा है-त्रिप्रदेशी स्कंध तीन आकाश प्रदेशों में अवगाढ, तीन अधोवर्ती अथवा उपरिवर्ती, दो पार्श्ववर्ती-इस प्रकार वह धर्मास्तिकाय के चार्वाचीनः परमाणुः धर्मास्तिकायप्रदेशेनास्थितेन स्पृष्टः, परभागवर्ती च परतः स्थितेन एवं द्वौ, तथा ययोःप्रदेशयोर्मध्ये परमाणु स्थाप्येते तयोरग्रेतनाभ्यां प्रदेशाभ्यां तौ स्पृष्टौ एकेनैको द्वितीयेन च द्वितीय इति चत्वारो, द्वौ चावगाढत्वादेव स्पृष्टावित्येवं षट्। २. भ. पृ. १३/६६-बारसहिं इह जघन्यपदं नास्ति। लोकान्तेपि आकाश प्रदेशानां विद्यमानत्वादिति द्वादशभिरित्युक्तम्। ३. भ. वृ. १३/६७-पूर्वोक्तनयमतेनावगाढप्रदेशास्त्रिधा अधस्तनोऽप्यु परितनोपि वा त्रिधा द्वौ पार्श्वतः इत्येवमष्टौ। ०० १. भ. पृ. १३/६६-इह चूर्णिकारव्याख्यानमिदं-लोकान्ते द्विप्रदेशिकः स्कंधः एक-प्रदेशसमवगाढः स च प्रतिद्रव्यावगाहं प्रदेश इति नयमताश्रयणेनावगाह प्रदेशस्यैकस्यापि भिन्नत्वात् द्वाभ्यां स्पृष्टः तथा यस्तस्यो पर्यधस्ताद्वा प्रदेशस्तस्यापि पुद्गलद्वयस्पर्शनेन नयमतादेव भेदाद् द्वाभ्यां, तथा पार्श्वप्रदेशावेकैकमणुं स्पृशतः परस्परव्यवहितत्वाद् इत्येवं जघन्यपदे षड्भि धर्मास्तिकायप्रदेशैर्युणुकस्कंधः स्पृश्यते, नयमतानंगीकरणे तु चतुभिरव व्यणुकस्य जघन्यतः स्पर्शना स्यादिति। वृत्तिकृता त्वेवमुक्तम्-इह यद् बिन्दुद्वयं तत्परमाणुद्वयमिति मन्तव्यं तत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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