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श. १६ : उ.६ : सू. १००-१०४
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भगवई
सस्थंभं वा वीरथंभं वा वसीमूलथंभं वा शरस्तम्भं वा वीरणस्तंभं वा वल्लीमूलथंभं वा पासमाणे पासति, वंशीमूलस्तम्भं वा वल्लीमूलस्तंभं वा उम्मूलेमाणे उम्मूलेति, उम्मूलितमिति पश्यन् पश्यति, उन्मूलयन् उन्मूलयति, अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, उन्मूलितम् इति आत्मानं मन्यते, तेणेव भवग्गहणणं सिज्झति जाव तत्क्षणमेव 'बुज्झति' तेनैव भवग्रहणेन सम्बदुक्खाणं अंतं करेति।।
सिद्ध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति।
महान् शरकंडे के स्तम्भ, वीरण के स्तम्भ, वंशीमूल के स्तम्भ, वल्लीमूल के स्तम्भ को देखता हुआ देखता है, उन्मूलन करता हुआ उन्मूलन करता है, मैंने उन्मूलन कर दिया है, ऐसा स्वयं को मानता है। वह उसी क्षण जागृत हो जाए तो उसी भव ग्रहण में सिद्ध यावत् सब दुःखों का अंत करता है।
१००. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एकं महान्तं खीरकुंभं वा दधिकुंभं वा घयकुंभं वा क्षीरकुम्भं वा दधिकुम्भं वा घृतकुम्भं वा मधुकुंभं वा पासमाणे पासति, मधुकुम्भं वा पश्यन् पश्यति, उत्पाटयन् उप्पाडेमाणे उप्पाडेति, उप्पाडितमिति उत्पाटयति, उत्पाटितम् इति आत्मानं अप्पाणं मन्नति, तक्रवणामेव बुज्झति, मन्यते, तत्क्षणमेव 'बुज्झति' तेनैव तेणेव भवग्गहणणं सिज्झति जाव भवग्रहणेन सिद्ध्यति यावत् सब्बदुक्खाणं अंतं करेति॥
सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति।
१००. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में क्षीर कुंभ, दधि कुंभ, घृत कुंभ, मधु कुंभ को देखता हुआ देखता है, उठाता हुआ उठाता है, मैंने उठाया है , ऐसा स्वयं को मानता है। वह उसी क्षण जागृत हो जाए तो उसी भवग्रहण में सिद्ध यावत् सब दुःखों का अंत करता है।
१०१. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एकं महान्तं सुरावियडकुंभं वा सोवीरवियडकुंभं वा सुराविकटकुम्भं वा सौवीरविकटकुम्भं वा तेल्लकुंभं वा वसाकुंभं वा पासमाणे - तैलकुम्भं वा वसाकुम्भं वा पश्यन् पासति, भिंदमाणे भिंदति, भिन्नमिति पश्यति, भिन्दानः भिनत्ति, भिन्नम् इति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, आत्मानं मन्यते, तत्क्षणमेव 'बुज्झति', दोच्चे भवग्गहणे सिज्झति जाव द्वितीये भवग्रहणे सिद्ध्यति यावत् सव्वदुक्खाणं अंतं करेति॥
सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति।
१०१. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अन्त में एक महान् मदिरा से आकीर्ण कुंभ, कांजी के जल से आकीर्ण कुंभ, तेल कुंभ, वसा कुंभ को देखता हुआ देखता है, भेदन करता हुआ भेदन करता है। मैंने भेदन कर दिया, ऐसा स्वयं को मानता है। वह उसी क्षण जागृत हो जाए तो दूसरे भव-ग्रहण में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है।
१०२. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एकं महत् १०२. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में एक पउमसरं कुसुमियं पासमाणे पासति, पद्मसरः कुसुमितं पश्यन् पश्यति, महान् कुसुमित पद्म सरोवर को देखता हुआ ओगाहमाणे ओगाहति, ओगाढमिति अवगाहमानः अवगाहते, अवगाढम् इति । देखता है, अवगाहन करता हुआ अवगाहन अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, आत्मानं मन्यते, तत्क्षणमेव 'बुज्झति', करता है, मैंने अवगाहन कर लिया, ऐसा तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति जाव तेनैव भवग्रहणेन सिद्ध्यति यावत् स्वयं को मानता है। वह उसी क्षण जागृत हो सव्वदुक्खाणं अंतं करेति॥ सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति।
जाए तो उसी भव-ग्रहण में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है।
१०३. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एग महं स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एकं महान्तं सागरं उम्मीवीयीसहस्सकलियं पासमाणे सागरम् उर्मिवीचिसहस्रकलितं पश्यन् पासति, तरमाणे तरति, तिण्णमिति पश्यति, तीर्यमाणः तरति, तीर्णम् इति अप्पाण मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, आत्मानं मन्यते, तत्क्षणमेव 'बुज्झति', तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति जाव तेनैव भवग्रहणेन सिद्ध्यति यावत् सव्वदुक्खाणं अंतं करेति॥
सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति।
१०३. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में एक हजारों ऊर्मियों और तरंगों से युक्त एक महान् समुद्र को देखता हुआ देखता है, तरता हुआ तरता है, मैं तर गया, ऐसा स्वयं को मानता है। वह उसी क्षण जागृत हो जाए तो उसी भव-ग्रहण में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है।
१०४. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एग महं
भवणं सब्वरयणामयं पासमाणे पासति, अणुप्पविसमाणे अणुप्पविसति,
स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एकं महत् भवनं सर्वरत्नमयं पश्यन् पश्यति, अनुप्रविशन् अनुप्रविशति, अनुप्रविष्टम्
१०४. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में एक महान् रत्नमय मकान को देखता हुआ देखता है, अनुप्रवेश करता हुआ अनुप्रवेश करता है,
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