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________________ भगवई ३८१ श. १६ : उ.६ : सू. १०५ अणुप्पविट्ठमिति अप्पाणं मन्नति, इति आत्मानं मन्यते, तत्क्षणमेव तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवग्गहणेणं 'बुज्झति', तेनैव भवग्रहणेन सिद्ध्यति सिज्झति जाव सब्बदुक्खाणं अंतं यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति। करेति॥ मैं अनुप्रविष्ट हो चुका हूं, ऐसा स्वयं को मानता है। वह उसी क्षण जागृत हो जाए तो उसी भव-ग्रहण में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। १०५. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एकं महत् १०५. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में एक विमाणं सव्वरयणामयं पासमाणे पासति, विमानं सर्वरत्नमयं पश्यन् पश्यति, महान् सर्वरत्नमय विमान को देखता हुआ द्रुहमाणे द्रुहति, दूढमिति अप्पाणं मन्नति, दुहमाणे द्रुहति, द्रुढं इति आत्मानं देखता है, उस पर चढ़ता हुआ चढता है, मैं तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवग्गहणेणं मन्यते, तत्क्षणमेव 'बुज्झति', तेनैव चढ़ गया हूं, ऐसा स्वयं को मानता है, वह सिज्झति जाव सब्बदुक्खाणं अंतं भवग्रहणेन सिध्यति यावत् उसी क्षण जागृत हो जाए तो उसी भव-ग्रहण करेति॥ सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति। में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है। भाष्य सूत्र ७६-१०५ बलदेव और मांडलिक माता के स्वप्न का उल्लेख है।' स्वप्न स्वाप-क्रिया में होने वाला एक विकल्प है। निद्रा की अपेक्षा स्वप्न दर्शन की पांच कोटियों का उल्लेख है। बयालीस स्वप्न चेतना की तीन अवस्थाएं होती हैं और तीस महास्वप्न के नामों का यहां उल्लेख नहीं है। चौदह महास्वप्नों १. सुप्त-प्रगाढ़ निद्रा की अवस्था। का उल्लेख ग्यारहवें शतक में है।' २. जागृत-निद्रा-मुक्त अवस्था। स्वप्न फल के आधार पर स्वप्नों की संख्या का निर्धारण किया ३. सुप्त-जागृत-न अति सुप्त, न अति जागृत, मध्य अवस्था। जा सकता है। सूत्र १२ से १०५ तक सैंतालीस स्वप्नों का उल्लेख प्रस्तुत प्रकरण में स्वप्न की कोटियां, प्रकार, स्वप्न द्रष्टा और हुआ है। इनमें से स्वप्न और महास्वप्न के पृथक्करण के लिए अनुसंधान स्वप्न का फल-इन चार विषयों पर विचार किया गया है। सूत्र ७६ में आवश्यक है। स्वप्न दर्शन की पांच कोटियां तथा सूत्र ५३ में स्वप्न के बयालीस प्रकार स्वप्न दर्शन की पांच कोटियां बहुत मौलिक हैं। अभयदेवसूरि बतलाए गए हैं। सूत्र ८४ में तीस महास्वप्न का उल्लेख है। स्वप्न असंख्येय के अनुसार स्वप्न-दर्शन की पांच कोटियों का विवरण इस प्रकार हैहोते हैं। ४२ का वर्गीकरण विशिष्ट फल सूचक स्वप्न की अपेक्षा से १. यथा तथ्य-इस कोटि का स्वप्न यथार्थ होता है। इसके दो किया गया है। महा स्वप्न महत्तम फल के सूचक होते हैं। भेद किए गए हैंसूत्र ८१ के अनुसार संवत, असंवत और संवतासंवत-तीनों प्रकार दृष्टार्थ अविसंवादी-किसी ने स्वप्न में देखा, मुझे कोई फल दे के मनुष्य स्वप्न देखते हैं। इस प्रसंग में भगवान महावीर के दस स्वप्नों __रहा है और जागने पर किसी ने फल दे दिया। यह द्रष्ट अर्थ का का भी उल्लेख है। (सूत्र ११) महावीर के स्वप्न-दर्शन का पाठ स्थानांग- अविसंवादी है। सूत्र में भी उपलब्ध है। फलाविसंवादी-इस स्वप्न का फल अविसंवादी होता है। किसी एक प्रश्न उपस्थित होता है-भगवती का पाठ स्थानांग में उद्धृत ने स्वप्न में स्वयं को गाय, वृषभ, हाथी आदि पर आरूढ़ देखा और किया गया अथवा स्थानांग का पाठ भगवती में उद्धृत किया गया? उसे कालान्तर में संपत्ति का लाभ हुआ। इसमें फल का संवाद है। आयारो के नौवें अध्ययन में महावीर की साधना का विशद २. प्रतान-विस्तार से देखा गया स्वप्न। वर्णन मिलता है। उसमें महावीर के दस स्वप्नों का उल्लेख नहीं है। ३. चिन्तास्वप्न-स्वप्न की यह कोटि प्रख्यात है। जागृत अवस्था आचार चूला के पंद्रहवें अध्ययन में महावीर के जीवन के कुछ प्रसंग हैं का चिंतन स्वप्न बन जाता है। विशेषावश्यक भाष्य में स्वप्न के सात किन्तु उनमें दस स्वप्नों का उल्लेख नहीं है। दस स्वप्नों का मूल स्रोत निमित्त बतलाए गए हैंभगवती को ही माना जा सकता है। स्थानांग संग्रह सूत्र है इसलिए अनुभूत-जिन वस्तुओं का पहले अनुभव किया जा अनुमान किया जा सकता है कि उसमें इस विषय का संग्रह भगवती से चुका है। किया गया। दृष्ट-जो वस्तुएं देखी हुई हैं। तीर्थंकर की माता चौदह महास्वप्न देखती है, इसका उल्लेख चिन्तित-जिसके विषय में पहले चिंतन किया गया है। पर्युषणा कल्प में है। प्रस्तुत आगम के ग्यारहवें शतक में तीर्थंकर वासुदेव, श्रुत-जो सुना हुआ है किसी शास्त्र के आधार पर जाना हुआ है। १. भ. पू. सू. १४/७६ : बयालीसं सुविण त्ति विशिष्टफलसूचकस्वप्नापेक्षया २. ठाणं १०/१०३ द्विचत्वारिंशदन्यथाऽसंख्येयास्ते संभवन्तीति। ' महासुविण त्ति' ३. भ. ११/१४२॥ महत्तमफल-सूचकाः। ४. वही, ११/१४२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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