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श. १६ : उ. ६ : सू. १०६
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भगवई
प्रकृति विकार-वात-पित्त जनित विकार।
५.अव्यक्त-दर्शन-इस कोटि के स्वप्नों में स्वप्न की विषयवस्तु देव-अनुकूल अथवा प्रतिकूल।
का दर्शन स्पष्ट नहीं होता। अनूप-सजल प्रदेश।
प्रस्तुत प्रकरण में स्वप्न के आध्यात्मिक फल का विवरण उपलब्ध इनके अतिरिक्त व्यक्ति के स्वार्जित पुण्य और पाप भी इष्ट और है। लोह राशि और सुरा-कुंभ देखने वाला दूसरे भव में सिद्ध होता है। अनिष्ट स्वप्न के निमित्त बनते हैं। ये सब निमित्तज स्वप्न हैं। स्वप्न की शेष स्वप्न देखने वाला उसी भव में सिद्ध होता है। इसकी व्याख्या का पांच कोटियों में से चिन्तास्वप्न की कोटि के स्वप्न हैं।
स्रोत अनुसंधेय है। उत्तराध्ययन वृत्ति में उद्धृत एक गाथा के अनुसार चिंतास्वप्न वृत्तिकार ने स्वप्नान्त का अर्थ स्वप्न का विभाग अथवा अवसान फलदायी नहीं होते। उसका प्रतिपाद्य यह है-अनुभूत, दृष्ट और चिंतित किया है। स्वप्नों को छोड़कर स्वस्थ शरीर वाले मनुष्य द्वारा देखा गया स्वप्न स्वप्न द्रष्टा तीन प्रकार के व्यक्ति होते हैं-संवृत, असंवृत और सफल होता है।
संवृतासंवृत। असंवृत और संवृतासंवृत व्यक्ति द्वारा देखा गया स्वप्न रात के प्रथम प्रहर में दृष्ट स्वप्न वर्ष भर में, दूसरे प्रहर में दृष्ट यथार्थ हो भी सकता है और यथार्थ नहीं भी हो सकता। संवृत मुनि के स्वप्न छह मास में, तीसरे प्रहर में दृष्ट स्वप्न तीन माह में और चौथे द्वारा देखा गया स्वप्न यथार्थ होता है। चित्त समाधि के प्रकरण में प्रहर में दृष्ट स्वप्न तत्काल फल देता है। विस्तार के लिए द्रष्टव्य श्री बतलाया गया है-आत्मयोगी मुनि स्वप्न देखता है और वह यथार्थ भिक्षु आगम विषय कोश।
होता है। यह चित्त समाधि का तीसरा स्थान है। संवृत मुनि यथार्थ ४. तद्विपरीत-यह स्वप्न विपरीत अर्थ देने वाला होता है। स्वप्न स्वप्न देखता है और उस स्वप्न का फल है दुःख से मुक्ति। द्रष्टा व्यक्ति स्वप्न में जो वस्तु देखता है, जागने पर उससे विपरीत वस्तु शब्द विमर्श की प्राप्ति होती है। उदाहरण स्वरूप कोई व्यक्ति स्वप्न में स्वयं को दामिणि-गाय आदि को बांधने की एक प्रकार की रज्जु। अमेध्य-अपवित्र वस्तु से लिप्त देखता है। जागने पर उसे मेध्य वस्तु-स्वर्ण संवेल्लेमाणे-समेटता हुआ। की प्राप्ति होती है।
उग्गोवेमाणे-सुलझाता हुआ। वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या में एक मतांतर का उल्लेख किया आवेढियं-आवेष्टित। है। उसके अनुसार मिट्टी के स्थल पर आरूढ़ व्यक्ति स्वप्न में स्वयं को परिवेढियं-बार बार आवेष्टित। अश्वारूढ़ देखता है। यह तद्विपरीत स्वप्न है।' गंध-पोग्गल-पदं
गन्ध-पुद्गल-पदम्
गंध-पुद्गल पद १०६. अह भंते! कोहपुडाण वा जाव अथ भन्ते! कोष्ठपुटानां वा यावत् १०६. भंते! कोष्ठ-पुट यावत् केतकी-पुट केयइपुडाण वा अणुवायंसि उम्भिज्ज- केतकीपुटानां वा अनुवाते आघ्राता-गंध ग्रहण करने वाले पुरुष की माणाण वा निभिज्जमाणाण वा उदभिद्यमानानां वा निर्भिद्यमानानां वा अनुकूल दिशा में खोले जा रहे हैं, ढक्कन उक्किरिज्जमाणाण वा विक्किरिज्ज- उत्कीर्यमाणानां वा विकीर्यमाणानां वा उतारे जा रहे हैं, उत्कीर्ण किया जा रहा है, माणाण वा ठाणाओ वा ठाणं स्थानात् स्थानं संक्रम्यमाणानां किं विकीर्ण किया जा रहा है, एक स्थान से दूसरे संकामिज्जमाणाणं किं कोढे वाति जाव कोष्ठे वाति यावत केतकी वाति? स्थान पर संक्रांत किया जा रहा है, इस केयई वाति?
अवस्था में कोष्ठपुट नाक के पास आता है?
यावत् केतकीपुट नाक के पास आता है? गोयमा! नो कोटे वाति जाव नो केयई गौतम! नो कोष्ठे वाति यावत् नो केतकी गौतम! न कोष्ठपुट नाक के पास आता है, न वाति, घाणसहगया पोग्गला वांति॥ वाति, घ्राणसहगताः पुद्गलाः वान्ति। केतकीपुट नाक के पास आता है। गंध सह
गत पुद्गल नाक के पास आते हैं। १. वि. भा. गा. १७०३ :
अमेध्यविलिप्तं स्वप्ने पश्यति जागरितस्तु मेध्यमर्थ कंचनं प्राप्नोतीति, अणुहय दिव चिंतिय, सुय-पयइ वियार-देवयाऽणूया।
अन्ये तु तद्विपरीतमेवाहु:-कश्चिद् स्वरूपेण मृत्तिकास्थलमारूढः स्वप्ने च सुमिणस्स निमित्ताई, पुण्णं पावं च नाभावो॥
पश्यत्यात्मानमवारूढमिति। २. उत्तरा. सुखबोधा वृत्ति पत्र १३० :
५. भ. वृ. १६/७६ : अव्यक्तं-अस्पष्टं दर्शनं-अनुभवः स्वप्नार्थस्य यत्रासाव. अणुहूय दिट्ट चिंतिय विवज्जियं, सब्वमेव जं सुमिणं।
व्यक्तदर्शनः। जायइ अवितह फलयं, सत्यसरीरेहि जं दिडं।
६. वही, १६/१२ स्वप्नान्ते स्वप्नस्य विभागे अवसाने वा। ३. वही वृत्ति पत्र १३० :
७. दशाश्रुतरकंध ५/७ सुमिणंदसणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा पढमम्मि वासफलया, बीए जामम्मि होति छम्मासा।
अहातचं सुमिणं पासित्तए।...... तइयम्मि तिमासफला, चरिमे सज्जप्फला होति॥
अहातचं तु सुमिणं खिप्पं पासइ संवुडे। ४. भ. वृ. १६/७६ : 'तविवरीय' त्ति यादृशं वस्तु स्वप्ने दृष्टं तद्विपरीत
सव्वं च ओहं तरति, दुक्खतो य विमुच्चइ । स्यार्थस्य जागरणे यत्र प्राप्तिः स तद्विपरीतस्वप्नो यथा कश्चिदात्मानं
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