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श. १६ : उ. ५ : सू. ५७-६०
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पोग्गला परिणया, नो अपरिणया, से इति पुद्गलाः परिणताः, नो अपरिणताः, कहमेयं भंते! एवं ? तत् कथमेतद् भदन्त ! एवम् ?
५७. गंगदत्तादि ! समणे भगवं महावीरे गंगदत्तं देवं एवं वयासी - अहं पि णं गंगदत्ता ! एवमाइक्खामि भासेमि पण्णमि परूवेमि- परिणममाणा पोग्गला परिणया, नो अपरिणया; परिणमंतीति पोग्गला परिणया, नो अपरिणया, सच्चमेसे अट्ठे ॥
५८. तए णं से गंगदत्ते देवे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमहं सोचा निसम्म तुट्टे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता नच्चासन्ने जाव पज्जुवासति ॥
गंगदत्तदेवस्स अप्पविसए पसिण-पदं ५६. तए णं समणे भगवं महावीरे गंगदत्तस्स देवस्स तीसे य महतिमहालियाए परिसाए धम्मं परिकहेइ जाव आराहए भवति ॥
६०. तए णं से गंगदत्ते देवे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा निसम्म तुट्ठे उट्टाए उट्ठेड़, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं बंदइ नमसर, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी - अहण्णं भंते! गंगदत्ते देवे किं भवसिद्धिए ? अभवसिद्धिए ? सम्मदिट्टी ? मिच्छदिट्ठी ? परित्तसंसारिए ? अनंतसंसारिए ? सुलभबोहिए ? दुल्लभबोहिए ? आराहए? विराहए ? चरिमे ? अचरिमे ? गंगदत्ताइ ! समणे भगवं महावीरे गंगदत्तं देवं एवं वयासी - गंगदत्ता ! तुमण्णं भवसिद्धिए, नो अभवसिद्धिए । सम्मदिट्टि, नो मिच्छदिट्ठी । परित्तसंसारिए नो अनंतसंसारिए । सुलभबोहिए, नो दुल्लभबोहिए। आराहए, नो विराहए। चरिमे, नो अचरिमे ॥
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गंगदत्त अयि ! श्रमणः भगवान् महावीरः गंगदत्तं देवं एवमवादीत्अहमपि गंगदत्त ! एवमाख्यामि भाषे प्रज्ञापयामि प्ररूपयामि - परिणमन्तः पुद्गलाः परिणताः, नो अपरिणताः, परिणमन्ति इति पुद्गलाः परिणताः, नो अपरिणताः सत्यः एषः अर्थः ।
ततः सः गंगदत्तः देवः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकम् एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा नात्यासन्नः यावत् पर्युपास्ते । गंगदत्तस्य आत्मविषये प्रश्न-पदम्
ततः श्रमणः भगवान् महावीर : गंगदत्तस्य देवस्य तस्यौ च महातिमहत्या परिषदि धर्म परिकथयति यावत् आराधकः भवति ।
ततः सः गंगदत्तः देवः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिके धर्मं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टः उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत् - अहं भदन्त ! गंगदत्तः देवः किं भवसिद्धिकः ? अभवसिद्धिकः ? सम्यग्दृष्टिः ? मिथ्यादृष्टिः? परीतसंसारिकः ? अनन्तसंसारिकः ? दुर्लभबोधिकः ? विराधकः ? चरमः ?
सुलभबोधिकः ?
आराधकः ?
अचरमः ?
गंगदत्त अ!ि श्रमण भगवान् महावीरः गंगदत्तं देवम् एवमवादीत् - गंगदत्त ! त्वं भवसिद्धिकः, नो अभवसिद्धिकः । सम्यग्दृष्टिः, नो मिथ्यादृष्टिः । परीतसंसारिकः, नो अनन्तसंसारिकः । सुलभबोधिकः, नो दुर्लभबोधिकः । आराधकः, नो विराधकः । चरमः, नो
अचरमः ।
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भगवई
रहे हैं इसलिए वे पुद्गल परिणत हैं, अपरिणत नहीं हैं। भंते! यह कैसे है ?
५७. अयि गंगदत्त ! श्रमण भगवान् महावीर ने गंगादत्त देव से इस प्रकार कहा-गंगदत्त ! मैं भी इसी प्रकार आख्यान करता हूं, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण करता हूं-परिणममान पुद्गल परिणत हैं, अपरिणत नहीं हैं। परिणमन कर रहे हैं इसलिए पुद्गल परिणत हैं, अपरिणत नहीं है। यह अर्थ सत्य है।
५८. गंगदत्त देव श्रमण भगवान् महावीर के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट तुष्ट हो गया । श्रमण भगवान् महावीर को वंदन - नमस्कार किया, वंदन- नमस्कार कर न अति निकट यावत् पर्युपासना करने लगा।
गंगदत्त देव का आत्म विषयक प्रश्न पद
५६. श्रमण भगवान् महावीर ने गंगदत्त देव को उस विशालतम परिषद् में धर्म कहा यावत् आराधक होता है।
६०. गंगदत्त देव श्रमण भगवान् महावीर के पास धर्म को सुनकर अवधारण कर हृष्ट तुष्ट हो गया। वह उठने की मुद्रा में उठा, उठकर श्रमण भगवान् महावीर को वंदन - नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर इस प्रकार बोला- भंते! मैं गंगदत्त देव क्या भवसिद्धिक हूं? अभवसिद्धिक हूं? सम्यग्दृष्टि हूं? मिथ्यादृष्टि हूं ? परित संसारी हूं? अनन्त संसारी हूं? सुलभ बोधि हूं ? दुर्लभ बोधि हूं? आराधक हूं ? विराधक हूं? चरम हूं? अचरम हूं?
अयि गंगदत्त ! श्रमण भगवान् महावीर ने गंगदत्त देव से इस प्रकार कहा- गंगदत्त ! तुम भविसिद्धिक हो, अभवसिद्धिक नहीं। सम्यग्दृष्टि हो, मिथ्यादृष्टि नहीं । परित संसारी हो, अनंत संसारी नहीं । सुलभ बोधि हो, दुर्लभ बोधि नहीं । आराधक हो, विराधक नहीं । चरम हो, अचरम नहीं ।
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