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भगवई
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श. १६ : उ. ५ : सू. ५६
महासामाणविमाणवासीहिं वेमाणिएहिं षोडशैः आत्मरक्षदेवसाहसीभिः, अन्यैः देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिखुडे जाव बहभिः महासामान्यविमानवासिभिः
हि-निग्घोस-नाइयरवेणं जेणेव जंबुद्दीवे वैमानिकैः देवैः, देवीभिः च साधु दीवे, जेणेव भारहे वासे, जेणेव सम्परिवृतः यावत् दुन्दुभि-निर्घोष- उल्लुयतीरे नगरे, जेणेव एगजंबुए चेहए, नादितरवेण यत्रैव जम्बूद्वीपः द्वीपः, यत्रैव जेणेव ममं अंतियं तेणेव पहारेत्य भारतः वर्षः, यत्रैव उल्लुकातीरम् गमणाए। तए णं से सक्के देविंद देवराया नगरम्, यत्रैव एकजम्बुकम् चैत्यम्, यत्रैव तस्स देवस्स तं दिव्वं देविहिं दिव्वं ममान्तिकं तत्रैव प्रधारयेत् गमनाय। ततः देवजुतिं दिव्वं देवाणुभागं दिव्वं तेयलेस्सं स शक्रः देवेन्द्रः देवराजः तस्य देवस्य तां असहमाणे ममं अट्ठ दिव्यां देवर्द्धि दिव्यां देवद्युतिं दिव्यं उक्वित्तपसिणवागरणाई पुच्छित्ता देवानुभागं दिव्यां तेजोलेश्याम् संभंतियवंदणएणं वंदित्ता जाव पडिगए॥ असहमानः माम् अष्ट उत्क्षिप्तप्रश्न
व्याकरणानि पृष्ट्रा सांभ्रान्तिकवन्दनकेन वन्दित्वा यावत् प्रतिगतः।
विमानवासी वैमानिक देवों से संपरिवृत होकर यावत् दुंदुभि-निर्घोष से नादित रव के साथ जहां जंबूद्वीप द्वीप है, जहां भारत वर्ष है, जहां उल्लूकातीर नगर है, जहां एकजंबुक चैत्य है, जहां मैं हूं, वहां आने के लिए प्रस्थान किया। देवराज देवेन्द्र शक्र उस देव की दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देव-द्युति, दिव्य देव-अनुभाग, दिव्य तेजोलेश्या को सहन न करता हुआ मेरे पास खड़े-खड़े आठ प्रश्न व्याकरण पूछकर, संभ्रमपूर्वक वंदना कर यावत् लौट गया।
भाष्य
1.सूत्र ५४-५५
सौधर्मेन्द्र शक्र द्वारा प्रश्न पूछने का पहला प्रसंग १६/३३ में है। प्रस्तुत आलापक में दूसरा प्रसंग है। ___बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किए बिना कोई भी क्रिया नहीं हो सकती-यह क्रिया का सर्व साधारण नियम है। यह वृत्तिकार का मत है' किन्तु स्थानांग में तीन प्रकार की क्रियाएं बतलाई गई हैं
१. पर्यादाय-बाहरी पुद्गलों को लेकर। २. अपर्यादाय-बाहरी पुद्गलों को लिए बिना।
३. पर्यादाय-अपर्यादाय-बाहरी पुदगलों को लेकर भी और न लेकर भी।
सौधर्मेन्द्र के प्रश्न का संबंध उत्तर विक्रिया से है इसलिए भगवान् ने उत्तर दिया-महर्द्धिक देव बाहरी पुदगलों का ग्रहण किए बिना आगमन, गमन आदि क्रियाएं नहीं कर सकते। इस विषय में भगवई ६/१६३१६७ तक का पाठ और भाष्य द्रष्टव्य है।
सौधर्मेन्द्र का शीघ्रता में आना, खड़े-खड़े प्रश्न पूछना और शीघ्र चले जाना-आश्चर्य का विषय बन गया। गौतम स्वामी ने इस विषय में जिज्ञासा की तब उत्तर में भगवान महावीर ने शीघ्रता का हेतु बतलाया। वह सूत्र में स्पष्ट है। इस प्रसंग में परिणममान-परिणत' इस सिद्धांत का भगवान् ने समर्थन किया।
द्रष्टव्य भगवई १/३६४-३७२ का भाष्य। मायी मिथ्यादृष्टि एवं अमायी सम्यग्दृष्टि के लिए द्रष्टव्य भगवई १/१०१ का भाष्य।
५६. जावं च णं समणे भगवं महावीरे यावत् च श्रमणः भगवान् महावीरः ५६. जिस समय श्रमण भगवान् महावीर ने भगवओ गोयमस्स एयम8 परिकहेति भगवतः गौतमस्य एतमर्थं परिकथयति भगवान् गौतम को यह अर्थ कहा, उसी समय तावं च णं से देवे तं देस हबमागए। तावत् च सः देवः तं देशं 'हव्व' मागतः।। वह देव उस देश-भाग में शीघ्र आ गया। उस तए णं से देवे समणं भगवं महावीरं ततः सः देवः श्रमणं भगवन्तं महावीरं देव ने श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर तिक्रवृत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, करेत्ता बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा प्रदक्षिणा कर वंदन-नमस्कार किया, वंदनएवं बयासी-एवं खलु भंते! महासुक्के एवमवादीत्-एवं खलु भदन्त! महाशुक्रे नमस्कार कर इस प्रकार बोला-भंते! कप्पे महासामाणे विमाणे एगे कल्पे महासामान्ये विमाने एकः । महाशुक्र कल्प महासामान्य विमान में एक मायिमिच्छदिहिउववन्नए देवे ममं एवं मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नकः देवः माम् मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक देव ने मुझे इस वयासी-परिणममाणा पोग्गला नो एवमवादीत्-परिणमन्तः पुद्गलाः नो प्रकार कहा-परिणममान पुदगल परिणत नहीं परिणया, अपरिणया; परिणमंतीति परिणताः, अपरिणताः, परिणमन्ति इति हैं, अपरिणत हैं। परिणमन कर रहे हैं, पोम्गला नो परिणया, अपरिणया। तए पुद्गलाः नो परिणताः, अपरिणताः। ततः इसलिए वे पुद्गल परिणत नहीं हैं, अपरिणत णं अहं तं मायिमिच्छदिहिउववन्नगं देवं अहं तं मायिमिथ्यादृष्ट्यपपन्नकं देवं हैं। तब मैंने उस मायी मिथ्यादृष्टि उपपत्रक एवं वयासी-परिणममाणा पोग्गला एवमवादीत्-परिणमन्तः पुद्गलाः देव से इस प्रकार कहा-परिणममान पुद्गल परिणया, नो अपरिणया; परिणमंतीति परिणताः, नो अपरिणताः, परिणमन्तिपरिणत हैं, अपरिणत नहीं हैं। परिणमन कर १. भ. वृ. १६/५४-५५
२. ठाणं ३/४
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