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________________ M श. १६ : उ. ५ : सू. ५५ ३६६ भगवई महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया। एवं वयासी अण्णदा णं भंते! सक्के वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्- वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार बोले-भंते! देविंद देवराया देवाणुप्पियं वंदति नमसति । अन्यदा भदन्त ! शक्रः देवेन्द्रः देवराजः देवराज देवेन्द्र शक्र जब कभी देवानुप्रिय को सक्कारेति जाव पज्जुवासति, किण्णं देवानुप्रियं वन्दते नमस्यति सत्करोति वंदन-नमस्कार करता है, सत्कार करता है भंते! अज्ज सक्के देविंदे देवराया यावत् पर्युपास्ते, किं (किण्णं) भदन्त! यावत् पर्युपासना करता है। भंते! क्या कारण देवाणुप्पियं अट्ठ उक्खित्त- अद्य शक्रः देवेन्द्रः देवराजः देवानुप्रियम् है-आज देवराज देवेन्द्र शक्र ने देवानुप्रिय से पसिणवागरणाई पुच्छइ, पुच्छित्ता अष्ट उत्क्षिप्तप्रश्नव्याकरणानि पृच्छति, खड़े खड़े आठ प्रश्न-व्याकरण पूछे, पूछकर संभंतियबंदणएणं बंदइ नमसइ जाव। पृष्ट्वा सांभ्रान्तिकवंदनकेन वन्दते संभ्रम पूर्वक वंदन-नमस्कार किया, यावत् पडिगए ? नमस्यति यावत् प्रतिगतः? उसी दिशा में लौट गया? गोयमादि ! समणे भगवं महावीरे भगवं गौतम अयि! श्रमणः भगवान् महावीरः अयि गौतम! श्रमण भगवान् महावीर ने गोयमं एवं बयासी-एवं स्खलु गोयमा! भगवन्तं गौतमम् एवमवादीत्-एवं खलु भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा-गौतम! तेणं कालेण तेणं समएण महासुक्के कषे गौतम! तस्मिन् काले तस्मिन् समये उस काल उस समय महाशुक्र कल्प में महासामाणे विमाणे दो देवा महिड्डिया महाशुक्रे कल्पे महासामाये विमाने द्वौ महासामान्य विमान में दो देव महान् ऋद्धि जाव महेसक्खा एगविमाणंसि देवत्ताए देवौ महर्द्धिको यावत् महेशाख्यौ यावत् महान् ऐश्वर्य वाले एक विमान में उववन्ना, तं जहा-मायिमिच्छ- एकविमाने देवत्वेन उपपन्नो, तद्यथा- देवरूप में उपपन्न हुए जैसे-मायी मिथ्यादृष्टि दिट्ठिउववन्नए य, अमायिसम्मदिहि- मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नकः च अमायि- उपपन्नक, अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्नक। उववन्नए य। सम्यग्दृष्ट्युपपन्नकः च। ततः सः मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक देव ने अमायी तए णं से मायिमिच्छदिट्ठिउववन्नए देवे मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नकः देवः तम् सम्यग्दृष्टि उपपन्नक देव से इस प्रकार तं अमायिसम्मदिविउववन्नगं देवं एवं अमायिसम्यग्दृष्ट्युपपन्नकं देवम् कहा-परिणममाण पुद्गल परिणत नहीं हैं, वयासी-परिणममाणा पोग्गला नो एवमवादीत्-परिणमन्तः पुद्गलाः नो अपरिणत हैं। परिणमन कर रहे हैं इसलिए परिणया, अपरिणया; परिणमंतीति । परिणताः, अपरिणताः, परिणमन्ति इति पुद्गल परिणत नहीं हैं, अपरिणत हैं। पोग्गला नो परिणया, अपरिणया। पुद्गलाः नो परिणताः, अपरिणताः। तए णं से अमायिसम्मदिविउववन्नए देवे ततः सः अमायिसम्यग्दृष्ट्युपपन्नकः । अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्नक देव ने उस तं मायिमिच्छदिट्ठिउववन्नगं देवं एवं देवः तं मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नकं देवम् मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक देव से इस प्रकार वयासी-परिणममाणा पोग्गला परिणया, एवमवादीत्-परिणमन्तः पुद्गलाः कहा-परिणममान पुद्गल परिणत हैं, नो अपरिणया; परिणमंतीति पोग्गला परिणताः, नो अपरिणताः, परिणमन्ति अपरिणत नहीं हैं। परिणमन कर रहे हैं परिणया, नो अपरिणया। तं इति पुद्गलाः परिणताः, नो अपरिणताः।। इसलिए पुद्गल परिणत हैं, अपरिणत नहीं है। मायिमिच्छदिहिउववन्नगं एवं पडिहणइ, तं मायिमिथ्यादृष्ट्युपन्नकम् एवं मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक देव को इस प्रकार पडिहणित्ता ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता ममं प्रतिहन्ति, प्रतिहन्य अवधिं प्रयुङ्क्ते, प्रतिहत किया। प्रतिहत कर अवधि का प्रयोग ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता प्रयुज्य माम् अवधिना आभोगयति किया, प्रयोग कर मुझे अवधिज्ञान से देखा, अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए (आभोएइ), आभोग्य (आभोएत्ता)। देखकर इस प्रकार का आध्यात्मिक मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था एवं खलु अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक एवं मनोगत समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे दीवे भारहे प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि- संकल्प उत्पन्न हुआ-श्रमण भगवान् महावीर वासे उल्लुयतीरस्स नगरस्स बहिया एवं खलु श्रमणः भगवान महावीरः जंबूद्वीप द्वीप में भारत वर्ष में उल्लूकातीर एगजंबुए चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं जम्बूद्वीपेद्वीपे भारते वर्षे उल्लुकातीरस्य नगर के बाहर एकजम्बुक चैत्य में योग्य स्थान ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं नगरस्य बहिः एकजम्बुके चैत्ये यथा की अनुमति लेकर संयम और तप से अपने भावमाणे विहरइ, तं सेयं खलु मे समणं प्रतिरूपम् अवग्रहम् अवगृह्य संयमेन आपको भावित करते हुए विहार कर रहे हैं। भगवं महावीरं वंदित्ता जाव पज्जुवासित्ता तपसा आत्मानं भावयन् विहरति, तत् इसलिए मेरे लिए श्रेय है कि मैं श्रमण भगवान् इमं एयारूवं वागरणं पुच्छित्तए त्ति कट्ट श्रेयः खलु मम श्रमणं भगवन्तं महावीरं महावीर की वंदना यावत् पर्युपासना कर यह एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता चउहि वन्दित्वा यावत् पर्युपास्य इमम् एतद्रूपं इस प्रकार का व्याकरण पूछू । इस प्रकार सामाणियसाहस्सीहि, तिहिं परिसाहिं, व्याकरणं प्रष्टुम् इति कृत्वा एवं संप्रेक्षा की, संप्रेक्षा कर चार हजार सत्तहिं अणिएहि सत्तहिं सम्प्रेक्षते, सम्प्रेक्ष्य चतसृभिः सामानिक- सामानिक, तीन प्रकार की परिषद्, सात अणियाहिवईहिं, सोलसहिं आयरक्ख- साहसीभिः, तिसृभिः परिषद्भिः, सप्तभिः प्रकार की सेना, सात सेनाधिपति, सोलह देवसाहस्सीहि अण्णेहि अनीकैः, सप्तभिः अनीकाधिपतिभिः, हजार आत्मरक्षक देव, अन्य बहु महासामान्य For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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