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भगवई
आभरणे ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति, करेत्ता जेणेव मुणिसुव्वए अरहा एवं जहेब उद्दायणे तहेब पव्वइए, तब एक्कारस अंगाई अहिज्ज जाव मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ, झूसेत्ता सहि भत्ताई अणसणाए छेदेति, छेदेत्ता आलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा महासुक्के कप्पे महासामाणे विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि जाव गंगदत्तदेवत्ताए उववन्ने ॥
तए णं से गंगदत्ते देवे अहुणोववन्नमेत्तए समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्त भावं गच्छति (तं जहा - आहारपजत्तीए जाव भासा - मणपज्जत्तीए) एवं खलु गोयमा ! गंगदत्तेणं देवेणं सा दिव्वा देविड्डी सा दिव्वा देवज्जुती से दिव्वे देवाणुभागे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए ॥
७२.
७३. गंगदत्तस्स णं भंते! देवस्स केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ?
गोयमा ! सत्तरस सागरोवमाई ठिती
पण्णत्ता ॥
७४. गंगदत्ते णं भंते! देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अनंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिति ? कहिं उववज्जिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं काहिति ॥
७५. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ॥
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तीर्थंकरातिशयान् पश्यति । एवं यथा उद्रायणः यावत् स्वयमेव आभरणान् अवमुञ्चति, अवमुच्य स्वयमेव पञ्चमुष्टिकं लोचं करोति, कृत्वा 'यत्रैव मुनिसुव्रतः अर्हन् एवं यथैव उद्रायणः तथैव प्रव्रजितः, तथैव एकादश अङ्गानि अधीते यावत् मासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषति, जोषित्वा षष्टिं भक्तानि अनशनेन छिनत्ति, छित्त्वा आलोचित प्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा महाशुक्रे कल्पे महासामान्ये विमाने उपपातसभायां देवशयनीये यावत् गंगदत्तदेवत्वेन
उपपन्नः ।
ततः सः गंगदत्तः देवः अधुनोपपन्नकः सन् पञ्चविधया पर्याप्त्या पर्याप्तभावं गच्छति । (तद्यथा - आहारपर्याप्त्या यावत् भाषा-मनः पर्याप्त्या) एवं खलु गौतम! गंगदत्तेण देवेन सा दिव्या देवर्द्धिः सा दिव्या देवद्युतिः सः दिव्यः देवानुभावः अभिसमन्वागतः ।
लब्ध:
प्राप्तः
गंगदत्तस्य भदन्त ! देवस्य कियत् कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम! सप्तदश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता ।
गंगदत्तः देवः तस्मात् देवलोकात् आयुः क्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण अनन्तरं च्यवं च्युत्वा कुत्र गमिष्यति ? कुत्र उपपत्स्यते ?
गौतम! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करिष्यति ।
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।
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श. १६ : उ. ५ : सू. ७२-७५
इस प्रकार उद्रायण (भ. १३ / ११७ ) की भांति यावत् स्वयं ही आभरण उतारे, उतार कर स्वयं ही पंचमुष्टि लोच किया, लोच कर जहां अर्हत् मुनिसुव्रत इस प्रकार जैसे उद्रायण वैसे ही प्रव्रजित हुआ। उसी प्रकार ग्यारह अंगों का अध्ययन किया यावत् एक मास की संलेखना से अपने शरीर को 'कृश बनाया, कृश बनाकर साठ भक्त (भोजन के समय) का छेदन किया, छेदन कर आलोचना-प्रतिक्रमण कर, समाधि प्राप्त कर कालमास में काल कर महाशुक्र कल्प में महासामान्य विमान में उपपात सभा में देवशयनीय में यावत् गंगदत्त देव के रूप में उपपन्न हुआ।
७२. गंगदत्त देव अभी उपपन्न मात्र होने पर पंच प्रकार की पर्याप्ति से पर्याप्त भाव को प्राप्त हो गया (जैसे- आहार पर्याप्ति यावत् भाषा मनः पर्याप्ति) गौतम ! इस प्रकार गंगदत्त देव को वह दिव्य देव ऋद्धि, वह दिव्य देवद्युति, वह दिव्य देवानुभाव लब्ध प्राप्त और अभिसमन्वागत है।
७३. भंते! गंगदत्त देव की स्थिति कितने काल की प्रज्ञप्त है ?
गौतम! सतरह सागरोपम की स्थिति प्रज्ञप्त है।
७४. भंते! गंगदत्त देव उस देवलोक से आयुक्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय के अनंतर च्यवन कर कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा? गौतम ! महाविदेह वास में सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों का अंत करेगा।
७५. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
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