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________________ भगवई डावणट्टयाए एगंतमंते संगारं कुब्वंति ॥ १३५. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते आजीवियाणं थेराणं संगारे पडिच्छइ, पडिच्छित्ता अंबकूणगं एगंतमंते एडेड़ ॥ १३६. तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उबागच्छइ, उवागच्छित्ता गोसालं मंखलिपुत्तं तिक्खुत्तो जाव पज्जुवासति ॥ हंता अस्थि । तं नो खलु एस अंबकूणए, अंबचोयए णं एसे । किंसंठिया हल्ला पण्णत्ता ? वसीमूलसंठिया हल्ला पण्णत्ता । वीणं वाएहि रे वीरगा! वीणं वाएहि रे वीरगा! १३७. अयंपुलादि! गोसाले मंखलिपुत्ते अयम्पुल ! अयि ! गोशालः मंखलिपुत्रः अयम्पुलम् आजीविकोपासकम् एवमवादीत् - अथ नूनम् अयम्पुल ! पूर्वारात्रापरात्रकालसमये यावत् यत्रैव मम अन्तिकं तत्रैव 'हव्वं' आगतः । सः नूनम् अयम्पुल ! अर्थः समर्थः ? हन्त अस्ति अयंपुलं आजीवियोवासगं एवं वयासीसे नूणं अयंपुला ! पुब्वरत्तावरत्तकालसमयंसि जाव जेणेव ममं अंतियं तेणेव हव्वमागए। से नूणं अयंपुला ! अट्टे समट्ठे ? तत् नो खलु एषः आम्रकूणकः आम्र'चोयए' एषः । किं संस्थिता 'हल्ला' प्रज्ञप्ता? वंशीमूलसंस्थिता 'हल्ला' प्रज्ञप्ता । वीणां वादय रे वीरक ! वीणां वादय रे वीरक ! परम १३८. तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं इमं एयारूवं वागरणं वागरिए समाणे हतुचित्तमाणंदिए दिए पी मणे सोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाण हियए गोसालं मंखलिपुत्तं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता परिणाई पुच्छर, पुच्छित्ता अट्ठाई परियादियइ, परिया- दिइत्ता उठाए उट्ठे, उट्ठेत्ता गोसालं मंखलिपुत्तं वंद नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता जामेव दिसं पाउ भूए तामेव दिसं पडिगए ॥ गोसालस्स अप्पणो नीहरण- निद्देस - पदं १३६. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते अपणो मरणं आभोएइ, आभोएत्ता ३०५ 'एडावण' - अर्थाय एकान्तम् अन्ते संगरं कुर्वन्ति । Jain Education International ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः आजीविकानां स्थविराणां संगरं प्रतीच्छति, प्रतीष्य आम्रकूणकम् एकान्तम् अन्ते एडयति । ततः सः अयम्पुलः आजीविकोपासकः यत्रैव गोशालः मंखलिपुत्रः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य गोशालं मंखलिपुत्रं त्रिः यावत् पर्युपास्ते । ततः सः अयम्पुलः आजीविकोपासकः गोशालेन मंखलिपुत्रेण इमम् एतद्रूपं व्याकरणं व्याकृतः सन् हृष्टतुष्टचित्तः आनन्दितः नन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवशविसर्पद्मानहृदयः गोशालं मंखलिपुत्रं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा प्रश्नान् पृच्छति, पृष्ट्वा अर्थान् पर्यादत्ते, पर्यादाय उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय गोशालं मंखलिपुत्रं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा यस्याः एव दिशः प्रादुर्भूतः तस्यामेव दिशि प्रतिगतः । गोशालस्य आत्मनः निर्हरण- निर्देश-पदम् ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः आत्मनः मरणम् आभोगत आभोग्य For Private & Personal Use Only संकेत किया। श. १५ : सू. १३५-१३६ १३५. मंखलिपुत्र गोशाल ने आजीवक स्थविरों के संकेत को ग्रहण किया, ग्रहण कर आम्रफल को एकांत में फेंक दिया। १३६. आजीवक- उपासक अयंपुल जहां मंखलिपुत्र गोशाल था, वहां आया, आकर मंखलिपुत्र गोशाल को तीन बार यावत् पर्युपासना की। १३७. अयंपुल ! मंखलिपुत्र गोशाल ने आजीवक उपासक अयंपुल से इस प्रकार कहा - अयंपुल ! पूर्वरात्र - अपररात्र काल समय यावत् जहां मैं हूं वहां शीघ्र आए । अयंपुल ! यह अर्थ संगत है ? हां, है । इसलिए यह आम्रफल नहीं, यह आम्र का छिलका है। हल्ला किस संस्थान वाली प्रज्ञप्त है ? हल्ला बांस- मूल के संस्थान वाली प्रज्ञप्त है। रे वीरो! वीणा बजाओ। रे वीरो! वीणा बजाओ । १३८. मंखलिपुत्र गोशाल के यह इस प्रकार की व्याकरण करने पर आजीवक उपासक अयंपुल हृष्ट-तुष्ट चित्तवाला, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मन वाला, परम सौमनस्ययुक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। मंखलिपुत्र गोशाल को वंदन - नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर प्रश्नों को पूछा। पूछ कर अर्थों को ग्रहण किया, ग्रहण कर उठने की मुद्रा में उठा । उठकर मंखलिपुत्र गोशाल को वंदन - नमस्कार किया, वंदननमस्कार कर जिस दिशा से आया उसी दिशा में लौट गया। गोशाल द्वारा अपनी मरणोत्तर क्रिया का निर्देश पद १३६. मंखलिपुत्र गोशाल ने अपने मरण को जानकर आजीवक स्थविरों को बुलाया, www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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