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________________ १२४ भगवई श. १३ : उ. २ : सू. ३७-३६ नवरं-अचरिमा अत्थि, सेसं जहा गेवेज्जएसु असंखेज्जवित्थडेसु जाव असंखेज्जा अचरिमा पण्णत्ता॥ नवरम्-अचरमाः अस्ति, शेषं यथा प्रैवेयकेषु असंख्येयविस्तृतेषु यावत् असंख्येयाः अचरमाः प्रज्ञप्ताः। नहीं है। इतना विशेष है-अचरम-भव वाले होते हैं, शेष असंख्येय विस्तृत ग्रैवेयक विमानों में यावत् असंख्येय अचरम भव वाले प्रज्ञप्त हैं। ३७. चोयट्ठीए णं भंते ! असुरकुमारा- चतुष्षष्टौ भदन्त! असुरकुमारावास- ३७. भंते! असुरकुमारों के चौसठ लाख आवासों वाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु शतसहस्रेषु संख्येयविस्तृतेषु असुर- ___में से संख्येय-विस्तृत असुरकुमारावासों में असुरकुमारावासेसु किं सम्मट्टिी कुमारावासेषु किं सम्यग्दृष्टयः असुर- क्या सम्यक् दृष्टि असुरकुमार उपपन्न होते असुरकुमारा उववज्जंति? मिच्छदिट्टी कुमाराः उपपद्यन्ते? मिथ्यादृष्टयः हैं? क्या मिथ्यादृष्टि असुरकुमार उपपन्न असुरकुमारा उववज्जंति ? असुरकुमाराः उपपद्यन्ते? होते हैं? एवं जहा रयणप्पभाए तिण्णि एवं यथा रत्नप्रभायां त्रयःआलापकाः इस प्रकार जैसे रत्नप्रभा में तीन आलापक आलावगा भणिया तहा भाणियब्वा।। भणिताः तथा भणितव्याः। कहे गये हैं, वैसे ही वक्तव्य हैं। एवं असंखेज्जवित्थडेसु वि तिण्णि एवं असंख्येयविस्तृतेषु अपि त्रयः इसी प्रकार असंख्येय-विस्तृत असुरगमगा, एवं जाव गेवेज्जविमाणे, गमकाः एवं यावत् ग्रैवेयकविमाने, कुमारावासों में तीनो गमक वक्तव्य हैं, इसी अणुत्तरविमाणेसु एवं चेव, नवरं-तिप्तु अनुत्तरविमानेषु एवं चैव, नवरम्-त्रिषु प्रकार यावत् ग्रैवेयक विमानों की वि आलावएस मिच्छादिट्ठी अपि आलापकेष मिथ्यादृष्टय वक्तव्यता। इसी प्रकार अनुत्तर विमानों की सम्मामिच्छादिट्ठी य न भण्णंति, सेसं सम्यमिथ्यादृष्टयः च न भण्यन्ते, शेषं वक्तव्यता, इतना विशेष है-तीनों तं चेव॥ तच्चैव। आलापकों में मिथ्यादृष्टि, सम्यगमिथ्यादृष्टि वक्तव्य नहीं हैं, शेष पूर्ववत्। ३८. से नूणं भंते ! कण्हलेस्से नीललेस्से स नूनं भदन्त! कृष्णलेश्यः नीललेश्यः ३५. भंते! वे कृष्णलेश्या, नीललेश्या यावत् जाव सुक्कलेस्से भवित्ता कण्हलेस्सेसु यावत् शुक्ललेश्यः भूत्वा कृष्णलेश्येषु शुक्ललेश्या वाले होकर कृष्णलेश्या वाले देवेसु उववज्जंति ? देवेषु उपपद्यन्ते? देवों में उपपन्न होते हैं? हंता गोयमा ! एवं जहेव नेरइएसु पढमे हन्त गौतम! एवं यथैव नैरयिकेषु प्रथमे हां गौतम! इसी प्रकार प्रथम उद्देशक (१३/ उद्देसए तहेव भाणियव्वं । नीललेस्साए उद्देशके तथैव भणितव्यम्। नील- १८-२२) नैरयिकों की भांति वक्तव्य है। वि जहेव नेरइयाणं, जहा नीललेस्साए लेश्यायाम् अपि यथैव नैरयिकाणाम्, नीललेश्या वाले भी नैरयिकों की भांति एवं जाव पम्हलेस्सेसु, सुक्कलेस्सेसु एवं यथा नीललेश्यायां एवं यावत् पद्म- वक्तव्य हैं। जैसे नीललेश्या वाले, उसी चेव, नवरं-लेस्सहाणेसु विसुज्झमाणेसु लेश्येषु, शुक्ललेश्येषु एवं चैव, प्रकार यावत् पद्मलेश्या वाले, शुक्ललेश्या विसुज्झमाणेसु सुक्कलेस्सं परिणमंति, नवरम-लेश्यास्थानेषु विशुध्यमानेषु- वाले की वक्तव्यता। इतना विशेष है-लेश्या परिणमित्ता सुक्कलेस्सेसु देवेसु विशुध्यमानेषु शुक्ललेश्यां परिणमन्ति, स्थान की विशुद्धि होते-होते शुक्ललेश्या में उवतज्जंति। से तेणद्वेणं जाव परिणम्य शुक्ललेश्येषु देवेषु उपपद्यन्ते। परिणत होते हैं, परिणत होकर शुक्ललेश्या उववज्जति॥ तत् तेनार्थेन यावत उपपद्यन्ते। वाले देवों में उपपन्न होते हैं। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-यावत् उपपन्न होते हैं। ३६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति। ३६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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