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________________ श. १५ : सू. १८६ ३३४ उक्कोसकालइियंसि नरगंसि नेरइयत्ताए पृथिव्याम् उत्कर्षकालस्थितिके नरके उववज्जिहिति । नैरयिकत्वेन उपपत्स्यते । से णं तओणंतरं उब्वट्टित्ता दोचं पि पक्खीसु उववज्जिहिति । तत्थ विणं सत्यवज्झे दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किचा दोचाए सक्करपभाए पुढवीए उक्कोसकालट्टिइयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववज्जिहिति । से णं ततो अनंतरं उव्वट्टित्ता सिरीसवेसु उववज्जिहिति । तत्थ वि णं सत्यवज्झे दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा दोघं पि दोच्चाए सक्करप्पभाए पुढवीए उक्कोसकालद्वियंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववज्जिहिति । सेतओतरं उव्वट्टित्ता दोघं पि सिरीस - वेसु उववज्जिहिति । तत्थ वि णं सत्थवज्जे दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा इसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसकालट्टिइयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए वज्जिहति । से णं ततो अनंतरं उब्वट्टित्ता सण्णीसु उववज्जिहिति । तत्थ वि णं सत्यवज्झे दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा असण्णीसु उववज्जिहिति । तत्थ विणं सत्यवज्झे दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा दो पि इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पलि ओवमस्स असंखेज्जइभागद्विइयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववज्जिहिति । सेणं ततो अनंतरं उब्वट्टित्ता जाई इमाई खयरविहाणाई भवति, तं जहाचम्मपक्खीणं, लोमपक्खीणं, समुग्गपक्खीणं, विययपक्खीणं, तेसु अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दात्ता- उद्दाइत्ता तत्थेवतत्थेव भुज्जो - भुज्जो पच्चायाहिति । सव्वत्थ वि णं सत्थवज्झे दाहबक्कंतीए कालमासे कालं किचा जाई इमाई भुयपरिसम्पविहाणारं भवति, तं जहागोहाणं, नउलाणं, जहा पण्णवणापए Jain Education International सः ततः अनन्तरम् उद्वर्त्य द्विः अपि पक्षिषु उपपत्स्यते । तत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं कृत्वा द्वितीयायां शर्कराप्रभायां पृथिव्याम् उत्कर्षकालस्थितिके नरके नैरयिकत्वेन उपपत्स्यते । सः ततः अनन्तरम् उद्वर्त्य सरीसृपेषु उपपत्स्यते । तत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं कृत्वा द्विः अपि द्वितीयायां शर्कराप्रभायां पृथिव्याम् उत्कर्षकालस्थितिके नरके नैरयिकत्वेन उपपत्स्यते । सः ततः अनन्तरम् उद्वर्त्य द्विः अपि सरीसृपेषु उपपत्स्यते । तत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्याम् उत्कर्षकालस्थितिके नरके नैरियकत्वेन उपपत्स्यते । सः ततः अनन्तरम् उद्वर्त्य संज्ञिषु उपपत्स्यते । तत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं कृत्वा असंज्ञिषु उपपत्स्यते । तत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं कृत्वा द्विः अपि अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां पल्योपमस्य असंख्येयभागस्थितिके नरके नैरयिकत्वेन उपपत्स्यते । सः ततः अनन्तरम् उद्वर्त्य यानि इमानि खेचरविधानानि भवन्ति, तद्यथा - चर्मपक्षिणाम्, लोमपक्षिणाम्, समुद्गपक्षिणाम् ( समुद्गपक्षिणाम्), विततपक्षिणाम्, तेषु अनेकशतसहस्रकृत्वः उद्द्द्रुत्य - उद्द्द्रुत्य तत्रैवतत्रैव भूयः - भूयः प्रत्याजनिष्यते । सर्वत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं कृत्वा यानि इमानि भुजपरिसर्पविधानानि भवन्ति, तद् For Private & Personal Use Only भगवई भी तीसरी बालुकाप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट कालस्थितिवाली नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होगा। वह उसके अनन्तर वहां से उद्वृत्त होकर दूसरी बार भी पक्षी के रूप में उपपन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट कालस्थितिवाली नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होगा। वह उसके अनन्तर वहां से उद्वृत्त होकर सरीसृप के रूप में उपपन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर दूसरी बार भी दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट कालस्थितिवाली नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होगा। वह उसके अनन्तर वहां से उद्वृत्त होकर दूसरी बार भी सरीसृप के रूप में उपपन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर इस पहली रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट कालस्थितिवाली नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होगा। वह उसके अनन्तर वहां से उद्वृत्त होकर संज्ञी जीव के रूप में उपपन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर असंज्ञी जीव के रूप में उत्पन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर दूसरी बार भी इस पहली रत्नप्रभा पृथ्वी में पल्योपम के असंख्येयभाग स्थितिवाली नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होगा। वह उसके अनन्तर वहां से उद्वृत्त होकर जो ये खेचर (पक्षी) के भेदों का विधान किया गया है, जैसे- चर्मपक्षी, रोमपक्षी, समुद्गपक्षी और विततपक्षी, इन जीवों के रूप में अनेक शतसहस्रबार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के रूप में बार-बार जन्म लेगा । इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर ये जो भुजपरिसर्प ( हाथों के बल www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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