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भगवई
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श. १५ : सू. १६५,१६६
क्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय के अनंतर च्यवन कर कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा?
लोगाओ आउक्खएणं भवक्वएणं देवलोकात् आयुःक्षयेण भवक्षयेण ठिइक्वएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं स्थितिक्षयेण अनन्तरं च्यवं च्युत्वा कुत्र गच्छिहिति? कहिं उववज्जिहिति? गमिष्यति? कुत्र उपपत्स्यते? गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् जाव सब्बतखाणं अंतं करेहिति॥ सर्वदुःखानाम् अन्तं करिष्यति।
गौतम! महाविदेह वास में सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों का अंत करेगा।
सुनक्षत्र का उपपात-पद १६५. देवानुप्रिय का अंतेवासी कौशल जनपद निवासी सुनक्षत्र नाम का अनगार-प्रकृति से भद्र यावत् विनीत। भंते! मंखलिपुत्र गोशाल के तपःतेज से परितापित होकर कालमास में मृत्यु को प्राप्त कर वह कहां गया है? कहां उपपन्न हुआ है?
सुनक्वत्तस्स उववाय-पदं
सुनक्षत्रस्य उपपात-पदम् १६५. एवं खलु देवाणुपियाणं अंतेवासी एवं खलु देवानुप्रियाणाम् अन्तेवासी कोसलजाणवए सुनक्वत्ते नामं अणगारे कोशलजानपदः सुनक्षत्र: नाम अनगारः पगइभदए जाब विणीए। से णं भंते! तदा प्रकृतिभद्रकः यावत् विनीतः। सः गोसालेणं मखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं भदन्त ! तदा गोशालेन मंखलिपुत्रेण परिताविए समाणे कालमासे कालं किच्चा तपसा तेजसा परितापितः सन् कहिं गए? कहिं उबवन्ने? एवं खलु। कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गतः? कुत्र गोयमा! ममं अंतेवासी सुनक्खत्ते नामं उपपन्नः? अणगारे पगइभद्दए जाब विणीए, से णं एवं खलु गौतम ! मम अन्तेवासी तदा गोसालेणं मखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं सुनक्षत्रः नाम अनगारः प्रकृतिभद्रकः परिताविए समाणे जेणेव ममं अंतिए यावत् विनीतः सः तदा गोशालेन तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बंदति मंखलिपुत्रेण तपसा तेजसा नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता सयमेव पंच परितापितः सन् यत्रैव अन्तिकं तत्रैव महन्वयाई आरुभेति, आरुभेत्ता समणा उपागच्छति उपागम्य वन्दते नमस्यति, य समणीओ य खामेति, खामेत्ता वन्दित्वा नमस्यित्वा स्वयमेव पञ्च आलोइय-पडिक्कते समाहिपत्ते महाव्रतानि आरोहति, आरुह्य कालमासे कालं किच्चा उडे चंदिम-सूरिय श्रमणान् च श्रमणीः च क्षमयति, जाव आणयपाणयारणे कप्पे वीइवइत्ता क्षमयित्वा आलोचित-प्रतिक्रान्तः अचुए कप्पे देवत्ताए उबवन्ने। तत्थ णं समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा अत्थेगतियाणं देवाणं बावीसं सागरोवमाई ऊर्ध्वं चन्द्रमस्-सूर्यं यावद् ठिती पण्णत्ता। तत्थ णं आनतप्राणतारणान् कल्पान् व्यतिव्रज्य सुनक्वत्तस्स वि देवस्स बावीसं अच्युते कल्पे देवत्वेन उपपन्नः। तत्र सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता।
अस्त्येककानां देवानां द्वाविंशतिः पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। तत्र सुनक्षत्र-स्यापि देवस्य द्वाविंशतिः
सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। से णं भंते! सुनक्खत्ते देवे ताओ सः भदन्तः ! सुनक्षत्रः देवः तस्मात् देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्रवएणं देव-लोकात् आयुःक्षयेण भवक्षयेण ठिइक्वएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं स्थितिक्षयेण अनन्तरं च्यवं च्युत्वा कुत्र गच्छिहिति? कहिं उववन्जिहिति? गमिष्यति ? कुत्र उपपत्स्यते? गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् सब्बदुक्खाणं अंतं काहिति॥
सर्वदुःखानाम् अन्तं करिष्यति।
गौतम! मेरा अंतेवासी सुनक्षत्र नाम का अनगार-प्रकृति से भद्र यावत् विनीत। मंखलिपुत्र गोशाल के तपःतेज से परितापित होने पर जहां मैं था, वहां आया, आकर वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर स्वयं ही पांच महाव्रतों का आरोपण किया। आरोपण कर श्रमण-श्रमणियों से क्षमायाचना की, क्षमायाचना कर आलोचना-प्रतिक्रमण कर, समाधि को प्राप्त होकर कालमास में मृत्यु को प्राप्त कर ऊर्ध्व चंद्र-सूर्य यावत् आनत-प्राणत, आरण कल्प का व्यतिक्रमण कर अच्युत कल्प में देवरूप में उपपन्न हुआ है। वहां कई देवों की स्थिति बाईस सागरोपम प्रज्ञप्त है। वहां सुनक्षत्र देव की स्थिति बाईस सागरोपम प्रज्ञप्त है।
भंते! सुनक्षत्र देव उस देवलोक से आयु-क्षयभव-क्षय और स्थिति-क्षय के अनंतर कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा?
गौतम! महाविदेह वास में सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों का अंत करेगा।
गोसालस्स भवब्भमण-पदं गोशालस्य भवभ्रमण-पदम्
गोशाल का भवभ्रमण-पद १६६. एवं खलु देवाणुपियाणं अंतेवासी एवं खलु देवानुप्रियाणाम् अन्तेवासी १६६. देवानुप्रिय के अंतेवासी कुशिष्य का नाम
कसिम्से गोसाले नाम मंखलिपत्ते से णं कशिष्यः गोशालः नाम मंखलिपत्रः सः था मंखलिपत्र गोशाल। भंते! वह मंखलिपत्र भंते! गोसाले मंखलिपुत्ते कालमासे भदन्त! गोशालः मंखलिपुत्रः कालमासे गोशाल कालमास में मृत्यु को प्राप्त कर कहां कालं किच्चा कहिं गए? कहिं उबवन्ने? कालं कृत्वा कुत्र गतः? कुत्र उपपन्नः? गया है? कहां उपपन्न हुआ है?
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