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श. १६ : उ. १ : सू. ५,६
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भगवई
बुच्चइ-सिय ससरीरी निक्खमइ, सिय असरीरी निक्खमइ॥
एवमुच्यते-स्यात् सशरीरी निष्क्रामति स्यात् अशरीरी निष्क्रामति।
यह कहा जा रहा है-वायुकायिक जीव स्यात् सशरीर निष्क्रमण करता है, स्यात् अशरीर निष्क्रमण करता है।
भाष्य
१.सूत्र १-४
एक लौहार अहरन पर लोह को कूटता है। उस समय वायु पैदा होती है, उसके विषय में चार सूत्रों का विधान किया गया है। लोह कूटने के समय जो वायु पैदा होती है, वह आक्रान्त वायु है। स्थानांग सूत्र में आक्रान्त वायु को अचित्त-निर्जीव बतलाया गया है।' अचित्त वायु के लिए दो से चार तक के सूत्र सार्थक नहीं हैं। इस विषय में
वृत्तिकार ने विमर्श किया है। उसके अनुसार आक्रांत वायु प्रारंभ में अचित्त होती है, पश्चात् सचेतन भी हो जाती है। इस विषय में ठाणं ५/१८३ का टिप्पण द्रष्टव्य है।
आक्रान्त वायु के सचित्त हो जाने पर उसके विषय में मृत्यु और निष्क्रमण-ये दो प्रश्न किये गये हैं। प्रस्तुत आगम के दूसरे शतक में इन प्रश्नों के विषय में चर्चा की जा चुकी है।
अगणिकाय-पदं
अग्निकाय-पदम्
अग्निकाय पद ५. इंगालकारियाए णं भंते! अगणिकाए ५.अङ्गारकारिकायां भदन्त ! अग्निकायः ५. भंते! अंगारकारिका कोयला बनाने की भट्टी केवतियं कालं संचिट्ठइ? कियन्तं कालं संतिष्ठते?
में अग्निकाय कितने समय तक रहता है? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, गौतम! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण गौतम! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः तीन उक्कोसेणं तिण्णि राइंदियाई। अण्णे वि त्रीणि रात्रिंदिवानि अन्योऽपि तत्र दिन-रात। वहां अन्य जीव वायुकाय भी तत्थ वाउयाए बक्कमति, न विणा वायुकायः अवक्रामति, न विना उत्पन्न होता है। वायुकाय के बिना अग्निकाय वाज्याएणं अगणिकाए उज्जलति॥ वायुकायेन अग्निकायः उज्ज्वलति। प्रज्वलित नहीं होता।
भाष्य
१.सूत्र ५ - अंगारकारिका में विद्यमान अग्निकाय की स्थिति का वही निर्देश है, जो सामान्य अग्निकाय की स्थिति का है। इस विषय में प्रज्ञापना पद (४/७२) द्रष्टव्य है।
इस अवस्था में प्रस्तुत सूत्र के विधान का उद्देश्य क्या है, यह
प्रश्न उपस्थित हो सकता है। इस प्रश्न का उत्तर सूत्र का उत्तर-भाग हो सकता है। उसमें एक नियम का निर्देश है, वह नियम है-अग्नि और वायु की व्याप्ति। व्याख्या साहित्य में यत्राग्निस्तत्र वायुः-यह सूत्र प्रचलित है। उस नियम का आधार यह है-वायु के बिना अग्नि प्रज्वलित नहीं होती।
किरिय-पदं
क्रिया-पदम्
क्रिया-पद ६. पुरिसे णं भंते! अयं अयकोटुंसि ६. पुरुषः भदन्त! अयः अयस्कोष्ठे ६. भंते! लोह के कोठे में तप्त लोह को लोहमय
अयोमएणं संडासएणं उब्विहमाणे वा अयोमयेन संदंशकेन उद्विध्यन् संडासी से निकालता अथवा डालता हुआ पबिहमाणे वा कतिकिरिए? प्रविध्यन् वा कतिक्रियः?
पुरुष कितनी क्रियाओं से स्पृष्ट होता है? गोयमा! जावं च णं से पुरिसे अयं गौतम! यावत् च सः पुरुषः अयः गौतम! जब तक पुरुष लोहे के कोठे में तप्त अयकोहसि अयोमएणं संडासएणं अयस्कोष्ठे अयोमयेन संदंशकेन लोह को लोहमय संडासी से निकालता उबिहति वा पबिहति वा, तावं च णं से उद्विध्यति, वा प्रविध्यति वा, तावत् अथवा डालता है तब तक वह पुरुष कायिकी पुरिसे काइयाए जाव पाणाइवाय- सः यः पुरुषः कायिक्या यावत् यावत् प्राणातिपात क्रिया-पांचों क्रियाओं से किरियाए-पंचहि किरियाहिं पट्टे सें प्राणातिपातक्रियया-पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्ट होता है। जिन जीवों के शरीर से लोह पि णं जीवाणं सरीरेहितो अए निव्वत्तिए, स्पृष्टः येषाम् अपि जीवानां शरीरात् निष्पन्न हुआ है, लोहे का कोठा निष्पन्न हुआ अयकोहे निव्वत्तिए, संडासए निव्वत्तिए, अयः निर्वर्तितः, अयस्कोष्ठे निवर्तितः है, संडासी निष्पन्न हुई है, अंगारे निष्पन्न हुए इंगाला निव्वत्तिया, इंगालकहणी संदंशकेन निर्वर्तितः, अङ्गाराः हैं, अंगारा निकालने वाली ईषत् वक्र लोहमयी निव्वत्तिया, भत्था निव्वत्तिया, ते वि णं निर्वर्तिताः अङ्गारकर्षणी निर्वर्तिता, यष्टि निष्पन्न हुई है, धौंकनी निष्पन्न हुई है, वे १. ठाणं ५/१८३
३. भ. २/९-१२ भाष्य। २. भ. वृ. १६/२-४ : अयं चाक्रान्तसंभवत्वेनादावचेतनतयोत्पन्नोऽपि पश्चात् ४. भ. वृ. सू. १६/५ अन्योऽप्यत्र वायुकायो व्युत्क्रामति, यत्राग्निस्तत्र वायुरिति सचेतनीभवतीति संभाव्यत इति।
कृत्वा।
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