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________________ भगवई चत्तारि पासायांतीओ। ६७. चमरे णं भंते! असुरिदे असुरकुमारराया चमरचंचे आवासे बसहिं उवेति ? नोट्टे समट्टे ॥ ६८. से केणं खाई अद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइचमरचंचे आवासे, चमरचंचे आवासे ? गोयमा ! से जहानामए - इहं मणुस्सलोगंसि उवगारियलेणाइ वा, उज्जाणियलेणाइ बा, णिज्जाणियलेणाइ वा, धारावारियलेणाइवा, तत्थ णं बहवे मस्सा य मणुस्सीओ य आसयंति सति चिति निसीयंति तुयट्टंति हसंति रमंति ललंति कीति कित्तंति मोहेंति पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं सुभाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणाणं कल्लाण- फलवित्तिविसेसं पचणुब्भवमाणा विहरंति, अण्णत्थ पुण वसहिं उवेंति । एवामेव गोयमा ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो चमरचंचे आवासे केवलं किड्डारतिपत्तियं, अण्णत्थ पुण वसहि उवेति । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - चमरचंचे आवासे, चमरचंचे आवासे ॥ १. सूत्र ६८ शब्द-विमर्श लयन । १५१ भणितव्या सभाविहीना यावत् चतस्रः प्रासादपंक्तयः । चमरः भदन्त ! असुरेन्द्रः असुरकुमारराजा चमरचञ्चे आवासे वसतिम् उपैति ? नो अयमर्थः समर्थः । सः यथानामक:- इह तत् केनार्थेन खाइं भदन्त ! एवमुच्यतेचमरचञ्चः आवासः, चमरचञ्चः आवासः ? गौतम! मनुष्यलोके उपकारिकलयनानि वा, औद्यानिकलयनानि वा, नैर्याणिकलयनानि वा, धारावारिकलयनानि वा, तत्र बहवः मनुष्याः च मानुष्यः च आसते शेरते तिष्ठन्ति निषीदन्ति त्वग्वर्तन्ते हसन्ति रमन्ते ललन्ति क्रीडन्ति कीर्त्तयन्ति मोहयन्ति पुरा पुराणानां सुचीर्णानां सुपराक्रान्तानां शुभानां कृतानां कर्मणां कल्याणानां कल्याणफलवृत्तिविशेषं प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति, अन्यत्र पुनः वसतिम् उपयन्ति । एवमेव गौतम! चमरस्य असुरेन्द्रस्य चमरचञ्चः असुरकुमारराजस्य आवासः । केवलं क्रीडा - रतिप्रत्ययम्, अन्यत्र पुनः वसतिम् उपैति । तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते - चमरचञ्चः आवासः, चमरचञ्चः आवासः । Jain Education International औपकारिक लयन - पीठिका | औद्यानिक लयन - उद्यान में होने वाला लयन । निर्यानिक लयन - नगर - निर्गमन के स्थान पर होने वाला जल-प्रपात लयन-जल प्रपात के परिपार्श्व में बना हुआ लयन । ६६. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ ॥ भाष्य तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त । इति यावत् विहरति । श. १३ : उ. ६ : सू. ६७-६६ ६७. भंते! क्या असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर चमरचंचा आवास में निवास करते हैं ? यह अर्थ संगत नहीं है। ६८. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - चमरचंच आवास चमरचंच आवास है ? वृत्तिकार ने आसयंति का अर्थ अल्पकालिक आश्रय लेना और सयंति का अर्थ आश्रय लेना किया है। उनका वैकल्पिक अर्थ है - अल्पकाल के लिए सोना और लंबे समय के लिए सोना ।' राजप्रश्नीय की वृत्ति में आसयंति का अर्थ बैठना तथा सयंति का अर्थ सोना किया गया है।' निसीयंति का अर्थ भी बैठना है। बैठने के लिए द्व्यर्थक प्रयोग विमर्शनीय है । इस दृष्टि से अभयदेव सूरि की अर्थ- कल्पना समीचीन लगती है। For Private & Personal Use Only गौतम ! यथानाम इस मनुष्य लोक में औपकारिक लयन, औद्यानिक लयन, निर्यानिक लयन, प्रपात लयन, वहां बहुत पुरुष और स्त्रियां रहते हैं, सोते हैं, ठहरते हैं, बैठते हैं, करवट बदलते हैं, परिहास करते हैं, रमण करते हैं, मनोवांछित क्रियाएं करते हैं, क्रीड़ा करते हैं, दूसरों को क्रीडा करवाते हैं, मोहित करते हैं। पूर्वकृत, पुरातन सुआचरित सुपराक्रांत, शुभ और कल्याणकारी कर्मों के कल्याण फल वृत्ति विशेष का प्रत्यनुभव करते हुए विहरण करते हैं, निवास वहां नहीं करते हैं, दूसरे स्थान पर करते हैं। गौतम ! इसी प्रकार असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर चमरचंच आवास में केवल क्रीडा - रति के लिए आते हैं, निवास वहां नहीं करते हैं, दूसरे स्थान पर करते हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है- चमरचंच आवास चमरचंच आवास है। १. भ. वृ. १३/६८ - आसयंति' त्ति आश्रयन्ते, ईषद् भजंते, 'सयंति' त्ति श्रयन्ते अनीषद् भजन्ते अथवा आसयंति ईषत्स्वपन्ति सयंति अनीषत्स्वपन्ति । २. राय. वृ. प. १६६ - २००१ ६६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही है । यावत् आत्मा को भावित करते हुए विहरण करते हैं। www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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