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________________ श. १६ : उ. ६ : सू. ६२-६४ ३७८ भगवई पडिबुद्धे, तण्णं समणस्स भगवओ महा- दृष्ट्रा प्रतिबुद्धः, तत् श्रमणस्य भगवतः । देखकर प्रतिबुद्ध हुए, उसके फलस्वरूप श्रमण वीरस्स अणते अणुत्तरे निब्वाधाए निरा- महावीरस्य अनन्तम् अनुत्तरम् भगवान् महावीर को अनंत, अनुत्तर, वरणे कसिणे पडिपुण्णे केवल- नियाघातं निरावरणं कृत्स्नं प्रतिपूर्ण निर्व्याघात, निरावरण, पूर्ण, प्रतिपूर्ण केवल वरनाणदंसणे समपन्ने। केवलवरज्ञानदर्शनं समत्पन्नम। ज्ञान और केवल दर्शन प्राप्त हुए। १. जणं समणे भगवं महावीरे एगं महं .. यत् श्रमणः भगवान् महावीरः एकं ६. श्रमण भगवान् महावीर स्वप्न में भूरे और हरिवेरुलिय वण्णाभेणं नियगेणं अंतेणं । महान्तं हरिवैडूर्यवर्णाभेन निजकेन। नील वर्ण वाली अपनी आंतों से मानुषोत्तर माणसत्तरं पव्वयं सव्वओ समंता आन्त्रेण मानुषोत्तरं पर्वतं सर्वतः पर्वत को चारों ओर से आवेष्टित और आवेढियं परिवेढियं सुविणे पासित्ता णं समन्तात् आवेष्टितं परिवेष्टितं स्वप्ने परिवेष्टित हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए, उसके पडिबुद्धे, तण्णं समणस्स भगवओ महा- दृष्ट्रा प्रतिबुद्धः, तत् श्रमणस्य भगवतः फलस्वरूप श्रमण भगवान् महावीर की देव, वीरस्स ओराला कित्ति-वण्ण-सद- महावीरस्य 'ओराला' कीर्ति-वर्ण- मनुष्य और असुरों के लोक में प्रधान कीर्ति, सिलोया सदेवमणुयासुरे लोए शब्द-श्लोकाः सदेवमनुजासुरे लोके वर्ण, शब्द और श्लाघा व्याप्त हुई। श्रमण परिभमंति-इति खलु समणे भगवं परिभ्रमन्ति- इति खलु श्रमणः भगवान् भगवान् महावीर ऐसे हैं, श्रमण भगवान् महावीरे, इति खलु समणे भगवं महावीरः, इति खलु श्रमणः भगवान् महावीर ऐसे हैं-ये शब्द सर्वत्र फैल गए। महावीरे। महावीरः। १०. जण्णं समणे भगवं महावीरे मंदरे १०. यत् श्रमणः भगवान् महावीरः मन्दरे १०. श्रमण भगवान् महावीर स्वप्न में महान् पव्वए मंदरचूलियाए उरि सीहासण- पर्वते मन्दरचूलिकायाः उपरि सिंहा- मंदर पर्वत की मंदर चूलिका पर अवस्थित वरगयं अप्पाणं सुविणे पासित्ता णं सनवरगतम् आत्मानं स्वप्ने दृष्टा सिंहासन पर अपने आपको बैठे हुए देखकर पडिबुद्धे, तण्णं समणे भगवं महावीरे प्रतिबुद्धः, तत् श्रमणः भगवान् महावीरः प्रतिबुद्ध हुए, उसके फलस्वरूप श्रमण सदेवमणुयासुराए परिसाए मज्झगए सदेवमनुजासुरायां परिषदि मध्यगतः भगवान् महावीर ने देव, मनुष्य और असुर की केवली धम्म आघवेति पण्णवेति परवेति केवली धर्मम् आख्याति प्रज्ञापयति परिषद् के बीच केवली प्रज्ञप्त धर्म का दंसेति निदंसेति उवदंसेति॥ प्ररूपयति दर्शयति निदर्शयति आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन उपदर्शयति। और उपदर्शन किया। सुविण-फल-पदं ६२. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एग महं हयपंतिं वा गयपंतिं वा नरपंतिं वा किन्नरपंतिं वा किंपुरिसपंतिं वा महोरगपतिं वा गंधब्वपंतिं वा वसभपंतिं वा पासमाणे पासति, द्रुहमाणे दुहति, दूढमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति॥ स्वप्न-फल-पदम् स्वप्न-फल-पद स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एकां महतीं ६२. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में एक हयपंक्तिं वा गजपंक्तिं वा किन्नरपंक्तिं । महान् अश्व पंक्ति, गज पंक्ति, नर पंक्ति, वा किम्पुरुषपंक्तिं वा गन्धर्वपक्तिं वा किन्नर पंक्ति, किंपुरुष पंक्ति, महोरग वृषभपक्तिं वा पश्यन् पश्यति, आरोहन् पंक्ति, गंधर्व पंक्ति, वृषभ पंक्ति को देखता आरोहति, आरूढम् इति आत्मानं हुआ देखता है, चढता हुआ चढता है, मैं चढ मन्यते, तत्क्षणमेव 'बुज्झति' तेनैव गया हूं, ऐसा स्वयं को मानता है, उसी क्षण भवग्रहणेन सिद्ध्यति यावत् वह जागृत हो जाए तो उसी भव-ग्रहण में सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति। सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है। ६३. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एकां महतीं ६३. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में पूर्व से दामिणिं पाईणपडिणायतं दुहओ समुद्दे दामिनी प्राचीन प्रतीचीनायातां द्वितः पश्चिम तक फैली हुई, समुद्र के दोनों छोरों पुढे पासमाणे पासति, संवेल्लेमाणे समुद्रान् स्पृष्टं पश्यन् पश्यति, संवेल्लन् का स्पर्श करती हुई एक महान् रस्सी को संवेल्लेइ, संवेल्लियमिति अप्पाणं संवेल्लति संवेल्लितं इति आत्मानं देखता हुआ देखता है, समेटता हुआ समेटता मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव ___ मन्यते, तत्क्षणमेव 'बुज्झति', तेनैव - है। मैंने समेटा है, ऐसा स्वयं को मानता है, भवम्गहणेणं सिज्झति जाव सब्ब- भवग्रहणेन सिद्ध्यति यावत् वह उसी क्षण जागृत हो जाए तो उसी भवदुक्खाणं अंतं करेति॥ सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति। ग्रहण में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है। ६४. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एका महतीं ६४. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में पूर्व से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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