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भगवई
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श. १४: उ. ६ : सू. १२६-१२६ इसलिए यह जीव का निश्चित लक्षण है। अनियत अथवा परिवर्तन- निकलने वाली रश्मियों में भी अवभास, उद्योत, ताप और प्रभास होता शील आभामंडल जीव के ही होता है। यह भी जीव का निश्चित है, इसी प्रकार शरीर और आभामंडल से निकलने वाली रश्मियों में भी लक्षण है।
अवभास, उद्योत, ताप और प्रभास होता है। शरीर और कर्मलेश्या के पुद्गल अवभासित, उद्योतित, तप्त आभामंडल-तुलना के लिए द्रष्टव्य भगवई १/६०-१०० तथा और प्रभासित होते हैं। इससे स्पष्ट है कि जैसे शरीर पौद्गलिक है, वैसे १/१०२ का भाष्य। ही कर्म लेश्या भी पौद्गलिक है। तात्पर्य में वह आभामंडल है।
वृत्तिकार ने चंद्र आदि के विमान के पुद्गल को पृथ्वीकायिक आभामंडल के पुद्गल-परमाणु स्कंधों में अवभास, उद्योत,ताप जीव मानकर कर्म लेश्या की व्याख्या की है। उपचार से विमान से और प्रभास की शक्ति होती है। उनकी तुलना चंद्र और सूर्य के विमानों निकलने वाले पुद्गलों को भी कर्मलेश्यत्व बतलाया है।' से बाहर निकलने वाली रश्मियों के साथ की गई है। जैसे चंद्र-सूर्य से जयाचार्य ने वृत्तिकार के अभिमत पर विशद विमर्श किया है। अत्ताणत्त-पोग्गल-पदं
आत्राणत्व-पुद्गल-पदम्
आत्मा-अनात्मा-पुद्गल पद १२६. नेरइयाणं भंते! किं अत्ता नैरयिकानां भदन्त! किम् आप्ताः १२६. भंते! क्या नैरयिकों के पुद्गल पोग्गला? अणत्ता पोग्गला?
आप्त-रमणीय हैं? गोयमा! नोअत्ता पोग्गला, अणत्ता गौतम! नो आप्ताः पुद्गलाः, अनाप्ताः । गौतम! नैरयिकों के पुदगल आप्त नहीं हैं, पोग्गला॥ पुद्गलाः।
उनके पुद्गल अनाप्त हैं।
१२७. असुरकुमाराणं भंते! किं अत्ता असुरकुमाराणां भदन्त! किम् आप्ताः पोग्गला? अणत्ता पोग्गला? पुद्गलाः? अनाप्ताः पुद्गलाः? गोयमा! अत्ता पोग्गला, नो अणत्ता गौतम! आप्ताः पुद्गलाः, नो अनाप्ताः पोग्गला। एवं जाव थणियकुमाराणं॥ पुद्गलाः। एवं यावत् स्तनितकुमाराणाम्।
१२७. भंते ! क्या असुरकुमारों के पुद्गल आप्त हैं? पुद्गल अनाप्त हैं? गौतम! असुरकुमारों के पुद्गल आप्त हैं, उनके पुद्गल अनाप्त नहीं हैं। इसी प्रकार यावत् स्तनित कुमार की वक्तव्यता।
१२८. पुढविकाइयाणं भंते! किं अत्ता पृथिवीकायिकानां भदन्त! किम् आप्ताः १२८. भंते! क्या पृथ्वीकायिक जीवों के पुद्गल पोग्गला? अणत्ता.पोग्गला? पुद्गलाः? अनाप्ताः पुद्गलाः?
आप्त हैं? पुद्गल अनाप्त हैं? गोयमा! अत्ता वि पोग्गला, अणत्ता वि गौतम! आप्ताः अपि पुद्गलाः, अनाप्ताः गौतम! पृथ्वीकायिक जीवों के पुद्गल आप्त पोग्गला। एवं जाव मणुस्साणं। ___ अपि पुद्गलाः। एवं यावत् मनुष्याणाम्। भी हैं और अनाप्त भी हैं। इसी प्रकार यावत् वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहा वानमन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिकानाम् मनुष्यों की वक्तव्यता। वाणमंतरों, असुरकुमाराणं॥ यथा असुरकुमाराणाम्।
ज्योतिष्कों और वैमानिकों की असुरकुमार की भांति वक्तव्यता।
इट्ठाणिट्ठादि-पोग्गल-पदं
इष्टानिष्टादि-पुद्गल-पदम् १२६. नेरइयाणं भंते! किं इट्टा पोग्गला? नैरयिकाणां भदन्त ! किं इष्टाः पुद्गलाः? अणिट्टा पोग्गला?
अनिष्टाः पुद्गलाः? गोयमा! नो इट्ठा पोग्गला, अणिट्ठा गौतम! नो इष्टाः पुद्गलाः, अनिष्टाः पोग्गला। जहा अत्ता भणिया एवं इट्टा पुद्गलाः। यथा आप्ताः (अत्ता) भणिताः वि, कंता वि, पिया वि, मणुण्णा वि एवं इष्टाः अपि, कान्ताः अपि, प्रियाः भाणियब्वा। एए पंच दंडगा॥
अपि, मनोज्ञाः अपि भणितव्याः। एते पञ्च दण्डकाः।
इष्ट-अनिष्ट आदि पुद्गल पद १२६. भंते! क्या नैरयिकों के पुद्गल इष्ट हैं?
पुद्गल अनिष्ट हैं? गौतम! नैरयिकों के पुद्गल इष्ट नहीं हैं, उनके पुद्गल अनिष्ट हैं। जैसे आप्त की भणिति है, वैसे ही इष्ट, कांत, प्रिय और मनोज्ञ पुद्गलों की वक्तव्यता। ये पांच दंडक हैं।
भाष्य १. सूत्र १२६-१२६
के अनुसार इसका अर्थ है रमणीय। वृत्ति में अत्त का एक अर्थ आत्र-दुःख ___ आप्त पद के मुख्य संस्कृत रूप तीन बनते हैं-आत्म, आप्त और से त्राण देने वाला किया है। यह बलात् किया गया जैसा प्रतीत होता आर्त। प्रस्तुत प्रकरण में आप्त शब्द अधिक प्रासंगिक है। वृद्ध व्याख्या है। १. भ. वृ. १४/१२५ इह च यद्यपि चन्द्रादिविमानपुद्गला एव पृथ्वीकायिकत्वेन २. भ. जो. ढा. ३०२ गा. १२-४३॥
सचेतनत्वात् सकर्मलेश्यास्तथाऽपि तन्निर्गतप्रकाशपुद्गलानां ३. भ. पृ. १४/१२६ आ-अभिविधिना त्रायन्ते-दुःखात् संरक्षन्ति सुखं तद्धेतुकत्वेनोपचारात् सकर्मलेश्यत्वमवगंतव्यमिति।
चोत्पादयन्तीति आत्रा: आप्ता वा-एकान्तहिता: अत एव रमणीया इति कुद्वैारख्यातं।
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