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________________ मूल सरूवि सकम्मलेस्स - पदं १२३. अणगारे णं भंते! भावियप्पा अपणो कम्मलेस्सं न जाणइ, न पासइ, तं पुण जीवं सरूविंसकम्मलेस्सं जाणइ पासइ ? हंता गोयमा ! अणगारे णं भावियप्पा अपणो कम्मलेस्सं न जाणइ, न पासइ, पुण 'जीवं सरूविंसकम्मलेस्सं जाणइ तं पासइ ॥ १२४. अत्थि णं भंते! सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासेंति उज्जोएंति तवेंति पभासेंति ? हंता अत्थि ॥ १२५. कयरे णं भंते! सरूवी सकम्मलेसा पोग्गला ओभासेंति जाव पभासेंति ? गोयमा ! जाओ इमाओ चंदिमसूरियाणं देवाणं विमाणेहिंतो लेस्साओ बहिया अभिनिस्सडाओ पभासेंति, एवं एए णं गोयमा ! ते सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासेंति उज्जोएंति तवेंति पभासेंति ॥ नवमो उद्देसो : नवां उद्देशक संस्कृत छाया सरूपि-सकर्मलेश्या-पदम् अनगारः भदन्त ! भावितात्मा आत्मनः कर्मलेश्यां न जानाति, न पश्यति, तत् पुनः जीवं सरूपिणं सकर्मलेश्यं जानाति पश्यति? हन्त गौतम! अनगारः भावितात्मा आत्मनः कर्मलेश्यां न जानाति, न पश्यति, तत् पुनः जीवं सरूपिणं सकर्मलेश्यं जानाति पश्यति । अस्ति भदन्त ! सरूपिणः सकर्म लेश्याः पुद्गलाः अवभासन्ते उद्योतन्ते तपन्ति प्रभासन्ते ? हन्त अस्ति । Jain Education International कतरे भदन्त ! सरूपिणः सकर्मलेश्याः पुद्गलाः अवभासन्ते यावत् प्रभासन्ते? गौतम! या इमाः चन्द्रमस्-सूर्याणां देवानां विमानेभ्यः लेश्याः बहिः अभिनिस्सृतान् प्रभासन्ते एवं एते गौतम! ते सरूपिणः सकर्मलेश्याः पुद्गलाः अवभासन्ते उद्योतन्ते तपन्ति प्रभासन्ते । भाष्य १. सूत्र १२३-१२५ प्रस्तुत आलापक में भावितात्मा, कर्मलेश्या, सरूपी और सकर्मलेश्या - ये चार पद विमर्शनीय हैं। भावितात्मा के लिए द्रष्टव्य भगवई १२ / १४६ - १६६ का भाष्य । वृत्तिकार ने कर्मलेश्या का पहला अर्थ कर्म के योग्य लेश्या तथा दूसरा अर्थ कर्म की लेश्या किया है। द्रष्टव्य भगवई १४/१ का भाष्य । भावितात्मा अनगार अपनी कर्म लेश्या को नहीं जानता, नहीं १. भ. वृ. १४/१२४ - १२५ कृष्णादिलेश्यायाः कर्मद्रव्यश्लेषणस्य चातिसूक्ष्मत्वेन छद्मस्थज्ञानागोचरत्वात्। २. भ. वृ. १४/१२५ यो जीवः कर्म्मलेश्यावांस्तं पुनः जीवम् आत्मानं सरूविं ति हिन्दी अनुवाद सरूप-सकर्म लेश्या पद १२३. भंते! भावितात्मा अनगार अपनी कर्म लेश्या को नहीं जानता, नहीं देखता और सरूप तथा सकर्म लेश्या वाले उस जीव को जानता देखता है? For Private & Personal Use Only हां गौतम ! भावितात्मा अनगार अपनी कर्म लेश्या को नहीं जानता, नहीं देखता और सरूप तथा सकर्म लेश्या वाले उस जीव को जानता देखता है। १२४. भंते! क्या सरूप और सकर्म लेश्या वाले पुद्गल अवभासित, उद्योतित, तप्त और प्रभासित करते हैं ? हां, करते हैं। १२५. भंते! कौनसे सरूप और सकर्मलेश्या वाले पुद्गल अवभासित यावत् प्रभासित करते हैं ? गौतम ! जैसे इन चंद्र-सूर्य देवों के विमानों से बाहर निकलने वाली प्रकाश रश्मियां प्रभासित करती हैं। इसी प्रकार गौतम! सरूप और कर्म लेश्या के पुद्गल अवभासित, उद्योतित, तप्त और प्रभासित करते हैं। देखता । वृत्तिकार के अनुसार इसका आशय यह है-कर्म लेश्या और कर्म द्रव्य के श्लेष में हेतुभूत परमाणु स्कंध अति सूक्ष्म हैं इसलिए वे छद्मस्थ के ज्ञान का विषय नहीं बनते।' भावितात्मा अनगार शरीर और आभामंडल के माध्यम से जीव को जानता देखता है।' आत्मा अमूर्त है और उसकी चैतन्य रश्मियां भी अमूर्त हैं। हम उसको नहीं जान सकते, नहीं देख सकते। शरीर जीव के ही होता है सहरूपेण-रूपरूपवतोरभेदाच्छरीरेण वर्तते योऽसौ समासान्तविधेः सरुपी तं सरूपिणं सशरीरमित्यर्थः अत एव सकर्म्मलेश्यं कर्म्मलेश्यया सह वर्तमानं जानाति, शरीरस्य चक्षुग्राह्यत्वाज्जीवस्य च कथञ्चित् शरीराव्यतिरेकादिति । www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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