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________________ श. १४ : उ.६:सू. १३०-१३४ २३० भगवई देवाणं भासासहस्स-पदं १३०. देवे णं भंते! महिहिए जाव महेसक्वे रूवसहस्सं विउब्वित्ता पभू भासासहस्सं भासित्तए? हंता पभू॥ देवानां भाषासहस्र-पदम् देवः भदन्त! महर्द्धिकः यावत् महेशाख्यः रूपसहसं विकृत्य प्रभुः भाषासहसं भाषितुम्? . हन्त प्रभुः। देवों का सहस्र-भाषा पद १३०. भंते! महर्द्धिक यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव हजार रूपों का निर्माण कर सहस्र भाषाएं बोलने में समर्थ हैं? हां, समर्थ हैं। १३१. सा णं भंते! किं एगा भासा? भासासहस्सं? गोयमा! एगा णं सा भासा, नो खलु तं भासासहस्सं॥ सा भदन्त! किम् एका भाषा? भाषा- १३१. भंते! क्या वह एक भाषा है? सहस्त्र सहस्रम्। भाषा है? गौतम! एका सा भाषा, नो खलु तत् गौतम! वह एक भाषा है, वह सहस्र भाषा भाषासहस्रम्। नहीं है। भाष्य १.सूत्र १३०-१३१ देवों की विक्रिया के विषय में एक विस्तृत विवरण तीसरे शतक में उपलब्ध है। प्रस्तुत आलापक में विक्रिया के साथ भाषा के विषय में जिज्ञासा की गई है। जिज्ञासा यह है-हजार रूप और हजार भाषा-यह उचित है अथवा हजार रूप और एक भाषा-यह उचित है? इस जिज्ञासा के उत्तर में भगवान् ने कहा-रूप हजार, पर भाषा एक होती है। वृत्तिकार ने इसका विवेचन किया है। उसका आशय यह है-भाषा उपयोग पूर्वक (चैतसिक प्रवृत्ति पूर्वक) बोली जाती है। एक जीव के एक समय में एक ही उपयोग होता है इसलिए एक जीव के हजार रूपों की भाषा एक ही होती है। सूरिय-पदं सूर्य-पदम् १३२. तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं तस्मिन् काले तस्मिन् समये भगवान् गोयमे अचिरुग्गयं बालसूरियं ___ गौतमः अचिरोद्गतं बालसूर्यं जपाजासुमणाकुसुमपुंजप्पकासं लोहितगं सुमनस्-कुसुमपुञ्जप्रकाशं लोहितकं पासइ, पासित्ता जायसहे जाव पश्यति, दृष्टा जातश्रद्धः यावत् समुप्पन्नकोउहल्ले जेणेव समणे भगवं समुत्पन्नकुतूहलः यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिणआयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता बंदइ प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता णचासण्णे नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा नमंसमाणे नात्यासन्नः नातिदूरं शुश्रूषमाणः अभिमुहे विणएणं पंजलियडे नमस्यन् अभिमुखः विनयेन पज्जुवासमाणे एवं वयासी प्राञ्जलिपुटः पर्युपासीनः एवमवादीत्किमिदं भंते! सूरिए ? किमिदं भंते! किम् अयं भदन्त! सूर्यः? किम् अयं सूरियस्स अहे? भदन्त! सूर्यस्यार्थः? गोयमा! सुभे सूरिए, सुभे सूरियस्स गौतम! शुभः सूर्यः, शुभः सूर्यस्यार्थः । अटे॥ सूर्य पद १३२. उस काल उस समय, भगवान् गौतम ने सद्यः उदित हुए जवाकुसुम पुञ्ज के प्रकाश के समान रक्तिम बाल सूर्य को देखा। देखकर एक श्रद्धा थावत् कुतूहल प्रबलतम बना। जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं, वहां आते हैं, वहां आकर श्रमण भगवान् महावीर को दांई ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं, वंदन-नमस्कार करते हैं। वंदन-नमस्कार कर न अति निकट न अति दूर, शुश्रूषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धांजलि होकर पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोलेभंते! यह सूर्य क्या है? भंते! सूर्य का अर्थ क्या है? गौतम! सूर्य शुभ है, सूर्य का अर्थ शुभ है। १३३. किमिदं भंते ! सरिए ? किमिदं भंते! सूरियस्स पभा? गोयमा! सुभे सूरिए, सुभा सूरियस्स पभा॥ किम् अयं भदन्त! सूर्यः? किम् इयं भदन्त! सूर्यस्य प्रभा? गौतम! शुभः सूर्यः, शुभा सूर्यस्य प्रभा। १३३. भंते! यह सूर्य क्या है? भंते! सूर्य की प्रभा क्या है? गौतम! सूर्य शुभ है, सूर्य की प्रभा शुभ है। १३४. किमिदं भंते सूरिए ? किमिदं भंते! किम् अयं भदन्त! सूर्यः? किम् इयं १३४. भंते! यह सूर्य क्या है? भंते! सूर्य की सूरियस्स छाया? भदन्त! सूर्यस्य छाया? छाया क्या है? १. भगवई ३/४-२३। जीवस्यैकदा एक एबोपयोग इष्यते। ततश्च यदा सत्यायन्यतरस्यां भाषायां वर्तते, २. भ. वृ. १४/१३०-१३१ एकाऽसौ भाषा, जीवैकत्वेनोपयोगैकत्वात्, एकस्य तदा नान्यस्यामित्येकैव भाषा। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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