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श. १५ : सू. ६६
साधुओं की रक्षा नहीं की। इसके पीछे यही कारण था कि लब्धिका प्रयोग करना सावद्य कार्य है तथा तीर्थंकर कभी सावद्य कार्य नहीं करते।
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भगवई
में भी उसे देखकर द्वेष भाव उभर आता है।" मित्र के साथ मित्रता और शत्रु के साथ शत्रुता चलती जाती है। ये दोनों राग-द्वेष के भाव हैं, ये धर्म नहीं है। *
आचार्य भिक्षु ने इसे छद्मस्थ अवस्था की चूक माना है। इसे लेकर आचार्य भिक्षु की कटु आलोचनाएं हुई हैं। किन्तु यह आचार्य भिक्षु की व्याख्या को न समझने के कारण हुई है। वस्तुतः भगवान् महावीर से बढ़कर उनके लिए कोई आराध्य नहीं था। एक ओर उन्होंने कहा- मुझे भगवान् महावीर का ही आधार है, और किसी का नहीं। दूसरी ओर वे भगवान् महावीर की भी आलोचना करते हैं। भगवान् ने गोशालक को बचाने के लिए शीतल तेजोलेश्या नामक योगशक्ति का प्रयोग किया और वैश्यायन ऋषि गोशालक को उष्ण तेजोलेश्या से मार रहा था, उससे उसे उबार लिया। आचार्य भिक्षु की साध्य साधन की मीमांसा से यह कार्य आत्ममुक्ति का प्रमाणित नहीं होता। इसलिए उन्होंने कहा- 'इस प्रसंग में भगवान् की वीतरागसाधना में चूक हुई, क्योंकि शक्ति का प्रयोग शुद्ध साधन नहीं है।'
भगवान महावीर द्वारा प्रस्तुत अनुकंपा (दया) के सिद्धांत को समझने के लिए जैन दर्शन के मौलिक सिद्धांतों को समझना होगा। आचार्य भिक्षु ने इस दृष्टि से जो स्पष्टता की है, उसका पूर्वाग्रहरहित अनुशीलन अपेक्षित है। 'भिक्षु विचार-दर्शन'' में इस विषय में विस्तृत विश्लेषण किया गया है, जिसके कुछ अंश यहां उद्धृत हैं :
सांसारिक उपकार और मोक्ष मार्ग की भिन्नता को स्पष्ट करते हुए आचार्य भिक्षु ने कहा- 'जो सांसारिक उपकार हैं, वे मोहवश किए जाते हैं। सांसारिक जीव उनकी प्रशंसा करते हैं, साधु उनकी सराहना नहीं करते। इन सांसारिक उपकारों में जिन धर्म का अंश भी नहीं है । जो इनमें धर्म बतलाते हैं, वे मूढ़ हैं।" यह धार्मिक तथ्य है; इसकी अभिव्यक्ति करते हुए उनकी अन्तरात्मा में कभी कंपन नहीं हुआ। सांसारिक उपकार में जो व्यावहारिक लाभ है उनकी उन्हें स्पष्ट अनुभूति थी । उसका उन्होंने मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है। जो व्यक्ति किसी जीव को मृत्यु से बचाता है, उसके साथ उसका स्नेह-बन्ध हो जाता है। इस जीवन में ही नहीं, किन्तु आगामी जन्म में भी उसे देखते ही स्नेह उत्पन्न होता है। जो व्यक्ति किसी जीव को मारता है उसके साथ उसका द्वेष-बन्ध हो जाता है। पर जन्म
१. भिक्षु विचार दर्शन' लेखक- आचार्य महाप्रज्ञ, प्र. जैन विश्व भारती, लाडनूं ।
२. अनुकंपा, ११1३८-३६
जितरा उपगार संसार तणां छे, जे जे करे ते मोह बस जांणों । साध तो त्यांनें कदे न सरावे, संसारी जीव तिणरा करसी बखांणों ।। संसार तणां उपगार कीयां में, जिण धर्म रो अंस नहीं छे लिगार । संसार तणां उपगार कीयां में, धर्म कहे ते तो मूढ गिंवार || ३. अनुकंपा, ११।४३
जीव नें जीवां बचावें तिण सूं, बन्ध जारों तिणरो राग सनेह । जो पर भव में ऊ आय मिले तो देखत पांण जागे तिण सूं नेह || ४. वही, ११।४४
जीव नें जीव मारे छें तिण सूं, बन्ध जानें तिण सूं धेष वशेख | ते पर भव में ऊ आय मिले तो, देखत पांण जागे तिण सूं धेष ॥
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कोई अनुकंपावश किसी का सहयोग करता है और कोई किसी के कार्य में विघ्न डालता है। ये राग और द्वेष के मनोभाव हैं। इनकी परम्परा बहुत लम्बी होती है। आत्म-मुक्ति का सहयोग ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के द्वारा ही किया जा सकता है। "
आचार्य भिक्षु की चिन्तन- दिशा स्वतंत्र नहीं थी । उनका चिन्तन जैनागमों की परिक्रमा किए चला, पर परिक्रमा का मार्ग उन्होंने विस्तृत बना दिया। उन्होंने कहा- जीवन और मृत्यु अपने आप में न काम्य है और न अकाम्य। ये परिवर्तन के अवश्यम्भावी चरण हैं। पहले चरण में प्राणी नये जीवन के लिए आता है और दूसरे में नये जीवन के लिए चला जाता है। पुद्गल की भूमिका में जीवन काम्य है और मृत्यु अकाम्य। आत्मा की भूमिका में जीवन और मृत्यु न काय है और न अकाय असंयममय जीवन और मृत्यु अकाम्य है, संयममय जीवन और मृत्यु काम्य है। निष्कर्ष की भाषा में असंयम अकाम्य है और संयम काम्य काम्य और अकाम्य सापेक्ष हैं। इनका निर्णय साध्य के आधार पर ही किया जा सकता है।
आचार्य भिक्षु ने कहा- 'जीव जीता है, वह अहिंसा या दया नहीं है। कोई मरता है, वह हिंसा नहीं है। मारने की प्रवृत्ति हिंसा है और मारने की प्रवृत्ति का संयम करना अहिंसा है। "
आचार्य भिक्षु की भाषा में संयम और धर्म अभिन्न हैं । जीवन और मृत्यु की इच्छा असंयम है, इसलिए वह अधर्म है। वह अहिंसा नहीं है, किन्तु मोह है। मोहात्मक प्रवृत्ति से जीवन की परम्परा का अन्त नहीं होता, किन्तु वह बढ़ती ही है।
मोह-मूढ़ मानस का साध्य जीवन बन जाता है। जो जीवन को साध्य मानकर जीता है, वह पवित्रता या संयम को प्रधान नहीं मान सकता । संयम को प्रधानता वही दे सकता है जिसका साध्य जीवनमुक्ति हो ।
महावीर की चेतना गोशालक की रक्षा के प्रसंग के समय मोहाणुओं से अनावृत नहीं थी । सुनक्षत्र और सर्वानुभूति अणगार के प्रसंग में अनावृत चुकी थी।
५. अनुकंपा, ११।४५
मित्री सूं मित्रीपणों चलीयो जावे, वेरी सूं वेरीपणों चलीयो जावे । ओ तो राग धेष कर्मा रा चाला, ते श्री जिण धर्म माहें नहीं आवे ।।
६. वही, ११।४६, ५०
कोई अणुकंपा आंणी घर मंडावे, कोई मंडता घर ने देवे भंगाय । ओ प्रतख राग ने धेष उघाड़ी, ते आगे लगा दोनूं चलीया जाय ॥ कहि कहि नें कितरोएक कहूं, संसार तणा उपगार अनेक । ग्यांन दरसण चारित नें तप बिनां, मोक्ष तणों उपगार नहीं छे एक ॥।
७. अणुकंपा, ५।११
जीव जीवे ते दया नहीं, मरे ते हो हिंसा मत जांण । मारणवाला ने हिंसा कही नहीं मारे हो ते तो दया गुण खांण ॥
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