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भगवई
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श. १५ : सू. ६६
है। शरीर पड़ा है, आंखें, कान, नाक पूरे के पूरे अवयव हैं, किन्तु उस समय भगवान छह लेश्या वाले और छद्मस्थ थे। मोह कर्म के बिजली गायब हो गई।
कारण उनको यह राग आया। कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं कि चिता में जलाने के लिए शव गोशालक असंयती और कुपात्र था। उसका शारीरिक सहयोग को लिटा दिया, वह बीच में ही खड़ा हो गया। पोस्टमार्टम के लिए भगवान श्री महावीर ने किया। यदि इसमें धर्म समझते तो सारा जगत रोगी को सुलाया गया और डॉक्टर पोस्टमार्टम करने बैठा। अस्त्र दुःखी था, भगवान ने इस उदाहरण को फिर से दुहराया तो नहीं। लगा, वह खड़ा हो गया। आपको आश्चर्य होगा कि यह कैसे हो अपनी तेजोलेश्या के द्वारा गोशालक ने दो साधुओं को जलाकर सकता है ? बिजली गायब हो गई थी, फिर कोई ऐसा बटन दबा, भस्मसात् कर दिया। वहां लब्धिधारी साधु तो बहुत थे। उन महापुरुषों बिजली आ गई और वह जी गया। लोगों ने समझ लिया कि यह तो को उन्होंने नहीं बचाया? यह अनुकंपा सावद्य समझनी चाहिए। भूत हो गया। यह बहुत बड़ा चमत्कार है हमारी प्राण-शक्ति का। जिस समय महावीर में छहों लेश्याएं थीं तथा आठों ही कर्म
प्राणशक्ति और विद्युत् एक बहुत बड़ा चमत्कार है। थे, उस समय जो उन्होंने शीतल लेश्या का प्रयोग कर गोशालक को
पांचों इन्द्रियों की शक्तियां, बोलने की शक्ति, सोचने बचाया था, वह उनकी छद्मस्थ अवस्था की भूल थी; उस कार्य में की शक्ति, चलने-फिरने की शक्ति, श्वास लेने की शक्ति धर्म की स्थापना करने वाला मूर्ख है।'
और जीने की शक्ति-ये सारी शक्तियां एक ही शक्ति के विभिन्न श्रीमज्जयाचार्य ने भी इसी तथ्य को विस्तार से समझाते हुए रूप हैं। मूलतः एक है-प्राणशक्ति। यदि शक्ति नहीं है तो चेतना का बताया हैउपयोग नहीं होता।
"यहां वृत्तिकार (अभयदेवसूरि) ने लिखा है कि भगवान् ने ज्ञान का विकास तब होता है जब प्राणशक्ति बढ़ जाती है। यहां जो गोशालक का संरक्षण किया था, वह सरागभाव से किया एक विशिष्ट ज्ञानी, जिसे परिभाषा में चतुर्दशपूर्वी कहा जाता है, वह था। सरागभाव से जो कार्य किया था, उसे धर्म किस प्रकार कह ४८ मिनट के भीतर इतनी बड़ी ज्ञान राशि का अर्जन कर लेता है, सकते हैं? पुनः 'दया के एकरसत्व से' ऐसा जो वृत्तिकार ने लिखा जिसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। वे इतनी बड़ी ज्ञान-राशि का है, उसका भी 'सरागभाव से स्नेह-सहित अनुकंपा की' ऐसा अर्थ केवल कुछ मिनटों में पुनरावर्तन कर लेते हैं।
है। उसे स्नेह-सहित अनुकंपा कहें, या भाव से दया कहें-इसे मोह प्राण-शक्ति जैसे-जैसे सूक्ष्म होती चली जाती है वैसे-वैसे उसकी रूप दया ही जानना चाहिए।..........यह दया सावध जाननी चाहिए। क्षमता और कार्यशक्ति बढ़ती चली जाती है। ध्यान की साधना वृत्तिकार ने यह भी कहा है कि 'आगे (सुनक्षत्र-सर्वानुभूति) मुनि प्राणशक्ति को सूक्ष्म करने की साधना है। श्वास की संख्या जितनी द्वय को नहीं बचाएंगे, वह वीतरागभाव के कारण तथा लब्धि का बढ़ती है, शक्ति उतनी ही खर्च होती चली जाती है। श्वास की प्रयोग नहीं करने के कारण।' यदि वे लब्धि का प्रयोग कर उन्हें संख्या जितनी कम होती है, उतनी ही शक्ति बढ़ती चली जाती है। बचाते तो वे अधिक दयावान् भगवान होते, किन्तु वीतराग होने के
विद्युत् के बिना चेतना के केन्द्रों को सक्रिय नहीं किया जा पश्चात् मोह रूप दया नहीं होती, इसलिए वीतरागत्व में रहे, तथा सकता और चेतना के केन्द्रों को सक्रिय किए बिना कोई भी विशिष्टता 'लब्धि का प्रयोग न करने से' ऐसा जो कहा है, उसका अर्थ भी यही प्राप्त नहीं की जा सकती।
है कि वीतराग होने के पश्चात् लब्धि का प्रयोग नहीं करते। इसका प्राण की ऊर्जा को संगृहीत करना और उस ऊर्जा का न्याय भी विचारना चाहिए। भगवान ने छद्मस्थावस्था में जो सरागआध्यात्मिकीकरण करना, यह अपेक्षित है।
भाव से लब्धि का प्रयोग किया, उसमें धर्म कैसे कह सकते हैं?" ऊर्जा के ऊर्वीकरण के दो मुख्य साधन हैं :
श्रीमज्जयाचार्य ने अनेक प्रमाणों से यह बताया है कि 'लब्धि का १. श्वास लेने की समुचित प्रक्रिया का अभ्यास। प्रयोग करना दोष है।' यह स्वयं केवलज्ञानी भगवान् द्वारा अनेक
२. चित्त को लंबे समय तक एक बिन्दु पर टिकाए रखने का स्थानों पर प्रतिपादित है। तो फिर छद्मस्थ अवस्था में तीर्थंकर द्वारा अभ्यास।
कृत इस कार्य को दोष-मुक्त कैसे कहा जा सकता है? २. अनुकंपा
इसका तात्पर्य यह हुआ कि छद्मस्थ-अवस्था के कारण भगवान् प्रस्तुत सूत्र ६५ में प्रयुक्त 'अनुकंपा' शब्द की व्याख्या आचार्य महावीर ने गोशालक की जो अनुकंपा की थी, वह सावध थी तथा भिक्षु और श्रीमज्जयाचार्य ने बहुत विस्तार से अपनी रचनाओं में भगवान महावीर जब तीर्थंकर बन चुके थे, तब उनके सामने ही उनके की है।
दो शिष्यों-सर्वानुभूति और सुनक्षत्र अणगार को जब गोशालक ने आचार्य भिक्षु ने प्रस्तुत प्रसंग की मीमांसा में लिखा है-महावीर तेजोलेश्या द्वारा भस्मसात् कर दिया था। फिर भी उस समय चूंकि स्वामी ने अनुकंपा करते हुए लब्धि फोड़कर गोशालक को बचाया। वे छद्मस्थ नहीं थे, उन्होंने शीतल लेश्या का प्रयोग कर अपने १. (क) अनुकंपा री चौपई, ढाल १, गाथा ८-१०; ढाल ६, गाथा १२। ३. भ, वृ. प. ६६५-इह च यद्गोशालकस्य संरक्षणं भगवता कृतं तत्सरागत्वेन (ख) गोसाला री चौपई, ढाल १६, गाथा १५, १६॥
. दयैकरसत्वाद्भगवतः। २. (क) भ. जो. (शतक १५ पर रचित पद्य संख्या २४५ पर रचित वार्तिक तथा
यच्च सुनक्षत्रमर्वानुभूतिमुनिपुङ्गवयोर्न करिष्यति तद्वीतरागत्वेन पद्य संख्या २४६), खण्ड ४, पृ. ३१७-३१८।
लब्ध्यनुपजीवकत्वादवश्यंभाविभावत्वाद्वेत्यवसेयमिति। (ख) भ्रमविध्वंसनम्, अनुकंपाऽधिकार, बोल ४३वां, पृ. १७७-१७६ ।
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