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भगवई
श. १५ : सू. ६७,६८ मोहाणुओं और पदार्थों से प्रभावित व्यक्ति जो कार्य करते हैं क्षण में साध्य बन जाता है और वही उसके अगले चरण का साधन उनके लिए हम पूर्ण अहिंसा की कल्पना ही नहीं कर सकते। बन जाता है। पवित्रता ही साध्य है और वही साधन है।
पूर्ण अहिंसक वही हो सकता है जो अपने को बाहरी वातावरण आचार्य भिक्षु ने कहा था-'शुद्ध साध्य का साधन अशुद्ध नहीं से सर्वथा अप्रभावित रख सके। बाहरी वातावरण से हमारा तात्पर्य हो सकता और शुद्ध साधन का साध्य अशुद्ध नहीं हो सकता। मोक्ष शक्ति, मोहाणु और पदार्थ से है। इनमें से किसी एक से भी प्रभावित साध्य है और उसका साधन है संयम। वह संयम के द्वारा ही प्राप्त आत्मा हिंसा से नहीं बच सकती।
हो सकता है।' साध्य-साधन-संगति
___ दया उपादेय तत्त्व है। अहिंसा का पालन वही कर सकता है, शुद्ध साध्य के लिए साधन भी शुद्ध होने चाहिए। इस विचार जिसका मन दया से भीगा हआ हो। पर साधन की विकृति से दया को आचार्य भिक्षु की भाषा में जो अभिव्यक्ति मिली, वह उनसे पहले भी विकृत बन जाती है। नहीं मिली।
आत्मवादी का साध्य है मोक्ष-आत्मा का पूर्ण विकास। उसके आध्यात्मिक जगत् का साध्य है आत्मा की पवित्रता और साधन हैं-सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र।' अज्ञानी उसका साधन वही है। आत्मा की अपवित्रता कभी भी आत्मिक को ज्ञानी, मिथ्यादृष्टि को सम्यक्दृष्टि और असंयमी को संयमी पवित्रता का साधन नहीं बन सकती। पहले क्षण का साधन दूसरे बनाना साध्य के अनुकूल है। यह साध्य-साधन की संगति है। ६७. तए णं गोसाले मंखलिपुते मम एवं ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः माम् ६७. मंखलिपुत्र गोशाल ने इस प्रकार वयासी-किं णं भंते! एस एवमवादीत-किं भदन्त! एषः यूका- . कहा-भंते! इस जूओं के शय्यातर ने आपको जूयासिज्जायरए तुब्भे एवं वयासी-से शय्यातरकः युष्मान् एवमवादीत्-तद् इस प्रकार कैसे कहा-भगवन्! मैंने जान गतमेयं भगवं! गत-गतमेयं भगवं? गतमेतद् भगवन्! गत-गतमेतद् भगवन्! लिया, भगवन्! मैंने जान लिया? जान
लिया?
६८. तए णं अहं गोयमा! गोसालं मखलि- ततः अहं गौतम! गौशालं मंखलिपुत्रम् ६८. गौतम! मैंने मंखलिपुत्र गोशाल से इस
पुत्तं एवं बयासी-तुम णं गोसाला! एवमवादीत-त्वं गोशाल! वैश्यायनं प्रकार कहा-गोशाल! तुमने बाल तपस्वी वेसियायणं बालतवस्सि पाससि, पासित्ता बालतपस्विनं पश्यति, दृष्ट्वा मम वैश्यायन को देखा, देखकर मेरे पास से धीरेममं अंतियाओ सणियं-सणियं अन्तिकात् शनैः-शनैः प्रत्यवष्वष्कते धीरे पीछे सरक गए, जहां बाल तपस्वी पच्चोसक्कसि, जेणेव वेसियायणे बाल- यत्रैव वैश्यायनः बालतपस्वी तत्रैव वैश्यायन था, वहां आए, आकर बाल तपस्वी तवस्सी तेणेव उवागच्छसि, उवागच्छित्ता उपागच्छति, उपागम्य वैश्यायनं बाल- वैश्यायन को इस प्रकार कहा-क्या तुम मुनि वेसियायणं बालतवस्सि एवं वयासी-किं तपस्विनम् एवमवादीत्-किं भवान् हो, पिशाच हो अथवा जूओं के शय्यातर? भवं मुणी? मुणिए? उदाहु मुनिः? ज्ञातः? उताहु यूकाशय्यातरकः? बाल तपस्वी वैश्यायन ने तुम्हारे इस अर्थ को जूयासेज्जायरए? तए णं से वेसियायणे ततः सः वैश्यायनः बालतपस्वी तव आदर नहीं दिया, स्वीकार नहीं किया, वह बालतवस्सी तव एयमद्वं नो आढाति, नो एतमर्थं नो आद्रियते, नो परिजानाति, मौन रहा। गोशाल! तुमने बाल तपस्वी परिजाणति, तुसिणीए संचिट्टइ। तए णं तूष्णीकः संतिष्ठते। ततः त्वं गोशाल! वैश्यायन को दूसरी बार भी, तीसरी बार भी तुमं गोसाला! वेसियायणं बालतवस्सि वैश्यायनं बालतपस्विनं द्विः अपि, त्रिः इस प्रकार कहा-क्या तुम मुनि हो? पिशाच दोच्चं पि तचं पि एवं वयासी-किं भवं अपि एवमावदीत्-किं भवान् मुनिः? हो? अथवा जूओं को शय्यातर? तुम्हारे मुणी? मुणिए? उदाहु जूयासेज्जायरए? ज्ञातः? उताहु यूकाशय्यातरकः? ततः दूसरी बार, तीसरी बार इस प्रकार कहने पर तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी तुमं सः वैश्यायन बालतपस्वी त्वया द्विः बाल तपस्वी वैश्यायन तत्काल आवेश में आ दोचं पि तचं पि एवं वृत्ते समाणे आसुरुत्ते अपि त्रिः अपि एवम् उक्ते सति आशुरक्तः गया यावत् पीछे सरका, सरक कर तुम्हारे जाव पच्चोसक्कति, पच्चोसक्कित्ता तव यावत् प्रत्यवष्वष्कते, प्रत्यवष्वष्क्य तव । वध के लिए शरीर से तेजोलेश्या को वहाए सरीरगंसि तेयलेस्स निसिरइ। तए वधाय शरीरके तेजोलेश्यां निसृजति। निकाला। गोशाल! मैंने तुम्हारी अनुकंपा के णं अहं गोसाला! तव अणुकंपणट्ठयाए ततः अहं गोशाल! तव अनुकम्पनार्थाय लिए बाल तपस्वी वैश्यायन की उष्ण वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स उसिण- वैश्यायनस्य बालतपस्विनः उष्णतेजः तेजोलेश्या का प्रतिसंहरण करने के लिए, वह १. (क) तत्त्वार्थ, १/१
२. अणुकंपा, ४ ११६,२०सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।
अग्यांनी रो ग्यांनी कीयां थकां, हुवो निश्चे पेला रो उधार हो। (ख) अणुकंपा, ४।१७
कीयो मिथ्याती रो समकती, तिण उतरीयो भव पार हो। ग्यांन दरसण चारित तप बिना, ओर मुगति रो नहीं उपाय हो। असंजती ने कीयो संजती, ते तो मोष तणां दलाल हो। छोडा मेला उपगार संसार नां, तिण थी सदगति किण विध जाय हो। तपसी कर पार पोहचावीयो, तिण मेट्या सर्व हवाल हो।
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