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________________ श. १५ : सू. ६६,७२ तेयपडिसाहरणट्टयाए एत्थ णं अंतरा सीयलियं तेयलेस्सं निसिरामि, जाए सा ममं सीयलियाए तेयलेस्साए वेसियायणस्स बालतवसिस्स उसिणा तेयलेस्सा पडिहया । तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी ममं सीयलियाए तेयलेस्साए साउसिणं तेयलेस्सं पडिहयं जाणित्ता तव यसरीरगस्स किंचि आबाहं वा बाबाहं वा छविच्छेदं वा अकीरमाणं पासित्ता साउसिणं तेयलेस्सं पडिसाहरति, पडिसाहरित्ता ममं एवं वयासी-से गतमेयं भगवं! गत गतमेयं भगवं ! ६६. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं अंतियाओ एयमहं सोचा निसम्म भीए तत्थे तसिए उब्विग्गे संजाय भए ममं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासीकहणणं भंते! संखित्तविउलतेयलेस्से भवति ? ७०. तए णं अहं गोयमा ! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी - जेणं गोसाला एगाए सणहाए कुम्मासपिंडियाए एगेण य वियडासएणं छछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड बाहाओ पगिज्झियपगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहर। से णं अंतो छण्हं मासाणं संखित्तविउलतेयलेस्से भवइ ॥ ७१. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एयमहं सम्मं विणएणं पडिसुणेति ॥ तिलथंभय-निष्पत्तीए गोसालस्स अवक्कमण-पदं ७२. तए णं अहं गोयमा ! अण्णदा कदायि गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धिं कुम्मगामाओ नगराओ सिद्धत्थग्गामं नगरं संपट्टिए विहाराए । जाहे य मो तं देसं हव्वमागया जत्थ णं से तिल भए । तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं वयासी - तुग्भे णं भंते । तदा ममं एवमाइक्खह जाव परूवेह - गोसाला ! एस णं तिलथंभए निष्फज्जिस्सइ, नो न Jain Education International २७४ प्रतिसंहरणार्थाय अत्र अन्तरा शीतलिकां तेजोलश्यां निसृजामि, यया सा मम शीतलिकया तेजोलेश्यया वैश्यायनस्य बालतपस्विनः उष्णा तेजोलेश्या प्रतिहता । ततः सः वैश्यायनः बालतपस्वी मम शीतलिकया तेजोलेश्यया स्वकोष्णां तेजोलेश्यां प्रतिहतां ज्ञात्वा तव च शरीरकस्य किञ्चित् अबाधां वा व्याबाधां वा छविच्छेदं अक्रियमाणं दृष्ट्वा स्वकोष्णां तेजोलेश्यां प्रतिसंहरति, प्रतिसंहृत्य माम् एवमवादीत्-तद् गतमेतद् भगवन्! गतगतमेतद् भगवन् ! ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः मम अन्तिकात् एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य भीतः त्रस्तः तृषितः उद्विग्नः संजातभयः मां वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत् कथं भदन्त ! संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः भवति । ततः अहं गौतम ! गोशालं मंखलिपुत्रं एवमवादीत् - यः गोशालः । एकया सनखया कूर्मासपिण्डिकया एकेन च विकटाशयेन षष्ठषष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा उर्ध्वं बाहू प्रगृह्य-प्रगृह्य सूराभिमुखः आतापनभूम्याम् आतापयन् विहरति । सः अन्तः षण्णां मासानां संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः भवति । ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः मम एतमर्थं सम्यक् विनयेन प्रतिशृणोति । गोशालकस्य तिलस्तम्भक- निष्पत्त्या अपक्रमण-पदम् ततः अहं गौतम ! अन्यदा कदाचित् गोशालेन मंखलिपुत्रेण सार्धं कूर्मग्रामात् नगरात् सिद्धार्थग्रामं नगरं सम्प्रस्थितः विहाराय । यदा च आवां तं देशं हव्वं आगच्छावः यत्र सः तिलस्तम्भकः । ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः माम् एवमवादीत् - यूयं भदन्त ! तदा माम् एवमाख्यात यावत् प्ररूपयत - गोशाल ! एषः तिलस्तम्भकः निष्पत्स्यते, नो न For Private & Personal Use Only भगवई तुम्हारे शरीर तक पहुंचे, उससे पूर्व शीतल तेजोलेश्या को निकाला। मेरी शीतल तेजोलेश्या से बाल तपस्वी वैश्यायन की उष्ण तेजोलेश्या प्रतिहत हो गई। बाल तपस्वी वैश्यायन ने मेरी शीतल तेजोलेश्या के द्वारा अपनी उष्ण तेजोलेश्या को प्रतिहत जानकर, तुम्हारे शरीर में किञ्चित् आबाध, व्याबाध अथवा छविच्छेद न करते हुए देखकर अपनी उष्ण तेजोलेश्या का प्रतिसंहरण किया, प्रतिसंहरण कर मुझे इस प्रकार कहा- भगवन्! मैंने जान लिया, भगवन्! मैंने जान लिया जान लिया। ६६. मंखलिपुत्र गोशाल मेरे पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर भीत और प्रकम्पित हो गया, उसके कंठ प्यास से सूख गये। वह उद्विग्न और भय से व्याकुल हो गया। उसने मुझे वंदन - नमस्कार किया, वंदन- नमस्कार कर इस प्रकार कहा - भगवन् ! संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्या वाला कैसे होता है? ७०. गौतम! मैंने मंखलिपुत्र गोशाल से इस प्रकार कहा- गोशाल! एक मुट्ठीभर कुल्माष पिण्डिका खाता है, एक चुल्लु पानी पीता है, निरंतर बेले बेले की तपस्या करता है, आतापन-भूमि में सूर्य के सामने दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर आतापना लेता है, वह छह मास के अंतराल में संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्या वाला हो जाता है। ७१. मंखलिपुत्र गोशाल ने मेरे इस अर्थ को विनयपूर्वक स्वीकार किया । तिल के पौधे की निष्पत्ति: गोशाल का अपक्रमण पद ७२. गौतम! मैं एक दिन मंखलिपुत्र गोशाल के साथ कूर्मग्राम नगर से सिद्धार्थग्राम नगर की ओर विहार के लिए प्रस्थित हुआ। हम उस भू-भाग के निकट आये, जहां वह तिल का पौधा था। मंखलिपुत्र गोशाल ने मुझे इस प्रकार कहा - भंते! आपने तब मुझे ऐसा कहा था यावत् प्ररूपणा की थी- गोशाल ! यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा; निष्पन्न नहीं होगा, ऐसा नहीं है। ये सात तिल फूलों के जीव मर www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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