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________________ है। भगवई २७५ निष्फज्जिस्सइ। एते य सत्त तिल- निष्पत्स्यते। एते च सप्त तिलपुष्पजीवाः पुष्फजीवा उदाइत्ता-उद्दाइत्ता एयस्स चेव उद्धृत्य-उद्वत्य एतस्य चैव तिल- तिलथंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त । स्तंम्भकस्य एकस्यां तिल 'संगलियाए' तिला पञ्चायाइस्संति, तण्णं मिच्छा। इमं सप्त तिलाः प्रत्याजनिष्यन्ते, तत् मिथ्या। च णं पञ्चवमेव दीसइ-एस णं से इदं च प्रत्यक्षमेव दृश्यते-एषः सः तिलथंभए नो निष्फन्ने, अनिष्फन्नमेव। तिलस्तम्भकः नो निष्पन्नः, अनिष्पन्नः ते य सत्त तिलपुष्फजीवा उदाइत्ता-उद्दा- एव। ते सप्त तिलपुष्पजीवाः उद्धृत्य- इत्ता नो एयस्सं चेव तिलथंभगस्स एगाए उद्रुत्य नो एतस्य चैव तिलस्तम्भकस्य तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाया॥ एकस्यां तिल-'संगलियाए' सप्त तिलाः प्रत्याजाताः। श. १५ : सू. ७३ कर इसी तिल के पौधे की एक तिलफली में . सात तिल के रूप में उपपन्न होंगे, वह मिथ्या है। यह प्रत्यक्ष दिखाई देता है-वह तिल का पौधा निष्पन्न नहीं हुआ, अनिष्पन्न ही है। वे सात तिल फूलों के जीव मरकर इस तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिल के रूप में उपपन्न नहीं हुए हैं। ७३. तए णं अहं गोयमा! गोसालं ततः अहं गौतम! गोशालं मंखलिपुत्रम् ७३. गौतम! मैंने मंखलिपुत्र गोशाल से इस मंखलिपुत्तं एवं बयासी-तुमं णं एवमवादीत्-त्वं गोशाल! तदा मम प्रकार कहा-गोशाल! उस समय तुमने मेरे गोसाला! तदा ममं एवमाइक्खमाणस्स एवमाख्यातः यावत् प्ररूपयतः एतमर्थं आख्यान एवं प्ररूपण करने पर इस अर्थ पर जाव परूवेमाणस्स एयमद्वं नो सद्दहसि, नो श्रद्दधसे, नो प्रत्येषि, नो रोचसे श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, रुचि नहीं नो पत्तियसि, नो रोएसि, एयमढे एतमर्थम् अश्रद्दधानः अप्रतियन्, की। इस अर्थ पर अश्रद्धा करते हुए, अप्रतीति असदहमाणे, अपत्तियमाणे, अरोएमाणे, अरोचमानः मां प्रणिधाय 'अयं करते हुए, अरुचि करते हुए मुझे संकल्पित ममं पणिहाए 'अयण्णं मिच्छावादी भवउ' मिथ्यावादी भवतु' इति कृत्वा मम कर 'यह मिथ्यावादी हो'-ऐसा सोच कर तुम त्ति कट्ट ममं अंतियाओ सणियं-सणियं अन्तिकात शनैः-शनैः प्रत्यवष्वष्कते, मेरे पास से शनैः-शनैः पीछे सरक गए, सरक पच्चोसक्कसि, पच्चोसक्कित्ता जेणेव से प्रत्यवष्वष्क्य यत्रैव सः तिलस्तम्भकं कर जहां तिल का पौधा था, वहां गए, जाकर तिलथंभए तेणेव उवागच्छसि, तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य तं तिल के पौधे को जड़ की मिट्टी सहित उवागच्छित्ता तं तिलथंभगं सलेट्टयायं तिलस्तम्भकं सलेष्टुकं चैव उखाड़ा, उखाड़ कर एकांत में फेंक दिया। चेव उप्पाडेसि, उप्पाडेत्ता एगतमंते उत्पाटयति, उत्पाट्य एकान्ते एडसि।। गोशाल! उसी समय आकाश में दिव्य बादल एडेसि। तक्खणमेत्तं गोसाला! दिव्वे तत्क्षणमात्रं गोशाल! दिव्यः घुमड़ने लगा। वह दिव्य बादल शीघ्र ही जोरअन्भवद्दलए पाउन्भूए । तए णं से दिव्वे । अभ्रबार्दलकः प्रादुर्भूतः । ततः सः दिव्यः जोर से गरजने लगा, शीघ्र ही बिजली अब्भवद्दलए खिप्पामेव पतणतणाति, अभ्रबार्दलकः क्षिप्रमेव प्रतनतनायति चमकने लगी। शीघ्र ही वर्षा शुरू हो गई। न खिपामेव पविज्जुयाति, खिप्पामेव क्षिप्रमेव विद्योतते, क्षिप्रमेव नात्युदकं अधिक पानी बहा, न अधिक कीचड़ हुआ। नच्चोदगं णातिमट्टियं पविरलपफुसियं नातिमृत्तिकां प्रविरलपृषत्कं रजःरेणु- रजों और धूलिकणों को जमाने वाली दिव्य रयरेणुविणासणं दिव्वं सलिलोदगं वासं विनाशनं दिव्यं सलिलोदकं वर्षां बूंदाबांदी हुई। उससे तिल के पौधे का रोपण वासति, जेण से तिलथंभए आसत्थे वर्षति, येन सः तिल-स्तम्भकः हुआ। वह अंकुरित हुआ, बद्धमूल हुआ और पच्चायाते बद्धमूले तत्थेव पतिहिए। तेय आश्वस्तः प्रत्याजातः बद्धमूलः, तत्रैव . वहीं पर प्रतिष्ठित हो गया। वे सात तिल फूलों सत्त तिलपुष्फजीवा उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता प्रतिष्ठितः। ते च सप्त तिलपुष्पजीवाः के जीव मर कर उसी तिल के पौधे की एक तस्स चेव तिलथंभगस्स एगाए उद्रुत्य-उद्रदुत्य तस्य चैव तिल- तिलफली में सात तिलों के रूप में उपपन्न तिलसंगलियाए सत्त तिला पचायाया। तं स्तम्भकस्य एकस्यां तिल-'संगलियाए' हुए। इसलिए गोशाल! यह तिल का पौधा एस णं गोसाला! से तिलथंभए निष्फन्ने, सप्त तिलाः प्रत्याजाताः। तत् एषः । निष्पन्न हुआ है, अनिष्पन्न नहीं हुआ। ये सात नो अनिष्फन्नमेव। ते य सत्त गोशाल! सः तिलस्तम्भक: निष्पन्नः, तिल फूलों के जीव मर कर इस तिल के पौधे तिलपुष्फजीवा उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता एयस्स नो अनिष्पन्नः एव। ते च सप्त तिल- की एक तिलफली में सात तिलों के रूप में चेव तिलथंभयस्स एगाए तिल- पुष्पजीवाः उद्रुय-उद्रदुत्य एतस्य चैव उपपन्न हुए हैं। गोशाल! इस प्रकार वनस्पतिसंगलियाए सत्त तिला पञ्चायाया। एवं तिलस्तम्भकस्य एकस्यां तिल- कायिक जीवों का 'पउट्ट परिहार'' होता खलु गोसाला! वणस्सइकाइया __'संगलियाए' सप्त तिलाः प्रत्याजाताः। है-वनस्पतिकायिक जीव मर कर पुनः उसी पउट्टपरिहारं परिहरंति॥ एवं खलु गौतम! वनस्पतिकायिकाः शरीर में उपपन्न हो जाते हैं। 'पउट्टे परिहारं' परिहरन्ति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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