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________________ श. १५ : सू. ७४-७६ २७६ भगवई भाष्य सूत्र ७२-७३ बहत ही व्यवस्थित रूप में मिलता है। प्रस्तुत आगम में 'पोट्ट१.पउट्ट परिहार परिहार' की चर्चा दो संदर्भो में हैं___ अभयदेवसूरी ने 'पउट्ट परिहार' का अर्थ इस प्रकार किया है- १. वनस्पतिकायिक जीव का उसी वनस्पतिकायिक शरीर में वनस्पतिकाय का एक ही जीव पुनः पुनः मरकर उसी शरीर में उत्पन्न पुनः उत्पन्न होना। . हो सकता है। यह वनस्पतिकायिक परिवर्तवाद है।' २. गोशालक के अनुसार उसका स्वयं का जीव सोलह वर्षों आवश्यक चूर्णि के अनुसार वनस्पति में पउट्ट परिहार होता है। में पोट्ट-परिहार द्वारा सात बार पुनर्जन्म कर अंत में 'गौतम पुत्र वनस्पति का जीव मरकर पुनः उसी शरीर में पैदा हो जाता है, यह है अर्जुन' के रूप में उत्पन्न होता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि पउट्ट परिहार। गोशालक ने इस सिद्धान्त के आधार पर पउट्ट परिहार गोशालक के मतानुसार मनुष्य भी पोट्ट-परिहार कर सकता है। के सिद्धान्त को सब जीवों पर लागू किया और नियतिवाद के सिद्धान्त 'पोट्ट-परिहार' का यह सिद्धांत अनेक दृष्टियों से चर्चनीय की स्थापना की। है। विशेषतः 'पुनर्जन्मवाद' के संदर्भ में चल रहे आधुनिक पोट्ट-परिहार (पउट्ट परिहार) का सिद्धांत अनुसंधान कार्य द्वारा कुछ ऐसे घटना-प्रसंग सामने आए हैं जिनमें पुनर्जन्मवाद के अंतर्गत कौन-सा जीव अगले जन्म में कहां एक व्यक्ति की मृत्यु होने पर उसी मृत शरीर में अन्य व्यक्ति का जन्म ले सकता है ? आदि विषयों की विस्तृत मीमांसा की गई है। जीव उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार की घटनाओं की सुसंगत एक गति से अन्य गति, एक लिंग से अन्य लिंग, एक 'काय' से अन्य व्याख्या अपेक्षित है।' 'काय' आदि में पुनर्जन्म के कुछ नियमों का ब्यौरा जैन आगमों में ७४. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः मम ७४. मंखलिपुत्र गोशाल ने मेरे इस प्रकार मम एवमाइक्खमाणस्स जाव परूवेमा- एवमाख्यतः यावत् प्ररूपयतः एतमर्थं आख्यान यावत् प्ररूपण करने पर इस अर्थ णस्स एयमद्वं नो सद्दहइ, नो पत्तियइ, नो नो श्रद्दधते नो प्रत्येति, नो रोचते, पर श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, रुचि रोएइ, एयमé असदहमाणे अपत्तियमाणे एतमर्थम् अश्रद्दधानः अप्रतियन् नहीं की, इस अर्थ पर अश्रद्धा, अप्रतीति अरोएमाणे जेणेव से तिलथंभए तेणेव अरोचमानः यत्रैव सः तिलस्तम्भकः । और अरुचि करता हुआ जहां तिल का पौधा उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ताओ तिल- तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य तस्मात् था, वहां आया, आकर उस तिल के पौधे से थंभयाओ तं तिलसंगलियं खुड्डइ, तिल-स्तम्भात् तां तिलसंगलियं तिल की फली को तोड़ा, तोड़कर हाथ में खुडित्ता करयलंसि सत्त तिले पप्फोडेइ॥ "खुड्डुइ', 'खुड्डित्ता' करतले सप्त सात तिलों का प्रस्फोटन किया। तिलान् प्रस्फोटयति। ७५. तए णं तस्स गोसालस्स मंस्खलि- ततः तस्य गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य पत्तस्स ते सत्त तिले गणमाणस्स तान् सप्त तिलान् गणयतः अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था एवं खलु प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादिसव्वजीवा वि पउट्टपरिहारं परिहरंति- एवं खलु सर्वे जीवाः अपि 'पउट्ट'एस णं गोयमा! गोसालस्स मखलि- परिहारं' परिहरन्ति-एषः गौतम! पत्तस्स पउट्टे', एस णं गोयमा! गोसा- गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य 'पउट्टे' एषः लस्स मंखलिपुत्तस्स ममं अंतियाओ गौतम! गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य मम आयाए अवक्कमणे पण्णत्ते॥ अन्तिकात् आदाय अपक्रमणं प्रज्ञप्तम्। ७५. उन सात तिलों की गणना करते हुए मंखलिपुत्र गोशाल के मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-इसी प्रकार सब जीवों के पोट्ट-परिहार होता है-गौतम! यह मंखलिपुत्र गोशाल का 'पउट्ट' का सिद्धान्त है। गौतम! यह मंखलिपुत्र गोशाल का मेरे पास से स्वयं अपक्रमण हो गया। गोसालस्स तेयलेस्सप्पत्ति-पदं गोशालस्य तजोलेश्योत्पत्ति-पदम् गोशाल के तेजोलेश्या का उत्पत्ति-पद ७६. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते एगाए ततः सः गोशालः मंखलिपत्रः एकया ७६. मंखलिपत्र गोशाल एक मद्री भर कल्माष सणहाए कुम्मासपिडियाए एगेण य सनखया कूर्मासपिण्डिकया एकेन च पिण्डिका और एक चुल्लु भर पानी पीता है, वियडासएणं छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं विकटाशयेन षष्ठषष्ठेन अनिक्षिप्तेन निरन्तर बेले बेले की तपस्या करता है, १. भ. वृ. १५/७३-मृत्वा मृत्वा यस्तस्यैव वनस्पतिशरीरस्य परिहार:- ३. जैन दर्शन और विज्ञान, पृ. १०५ (Dr. lan Stevenson, Twenty परिभोगस्तत्रैवोत्पादोऽसौ परिवृत्यपरिहारस्तं परिहरन्ति-कुर्वन्तीत्यर्थः । Cases Suggestive of Re-incarnation में वर्णित घटना की समीक्षा)। २. आव. चू. पृ. २६६-"ते एवं वणप्फइईण पउट्टपरिहारो, पउटपरिहारो नाम ४. जैन दर्शन और विज्ञान, पृ. १०६, १०७। परावर्त्य परावर्त्य तस्मिन्नेव सरीरके उववज्जति तं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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