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________________ भगवई ६५ श. १२ : उ. ६ : सू. १२४ भाष्य १. सूत्र १२२-१२३ आवृत कर दक्षिण पश्चिम (नैऋत्य) में जाता है तब उत्तर पूर्व में चंद्र प्राचीन ज्योतिष का एक मत यह था-राहु चंद्रमा का ग्रास या सूर्य दिखाई देता है, दक्षिण पश्चिम में राहु। को अमान्य कर प्राचीन जैन खगोल सम्मत मत जब राह देव आता हआ, जाता हआ, विक्रिया करता हुआ इस प्रकार निरूपित किया गया है-राहु चंद्र अथवा सूर्य को कभी परिचारणा करता हुआ चंद्र या सूर्य के दक्षिण पश्चिम (नैऋत्य) भाग अधोभाग से ग्रहण कर अधोभाग से छोड़ता है, कभी अधोभाग से को आवृत कर उत्तर-पूर्व (ईशान) में जाता है तब चंद्र या सूर्य ग्रहण कर ऊपरीभाग से छोड़ता है, कभी ऊपरीभाग से ग्रहण कर दक्षिण-पश्चिम भाग में दिखाई देता है, उत्तर-पूर्व में राहु। अधोभाग से छोड़ता है, कभी ऊपरीभाग से ग्रहण कर ऊपर के भाग जब राहु देव आता हुआ, जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ से छोड़ता है। कभी वाम पार्श्व से ग्रहण कर वाम पार्श्व से ही छोड़ता परिचारणा करता हुआ चंद्र या सूर्य के दक्षिण पूर्व (अग्निकोण) भाग है। कभी वाम पार्श्व से ग्रहण कर दक्षिण पार्श्व से छोड़ता है। कभी को आवृत कर उत्तर-पश्चिम (वायव्य) भाग में जाता है तब दक्षिण दक्षिण पार्श्व से ग्रहण कर वाम पार्श्व से छोड़ता है, कभी दक्षिण पूर्व भाग क्षत्रक चंद्र या सूर्य दिखाई देता है, उत्तर पश्चिम में राहु। पार्श्व से ग्रहण कर दक्षिण पार्श्व से ही छोड़ता है।' जब राहु देव आता हुआ, जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ राहु के पर्यायवाची ६ नाम हैं-शृंगाटक, जटिलक, क्षत्रक, परिचारणा करता हुआ चंद्र या सूर्य के उत्तर पश्चिम (वायव्य) भाग खरक, दर्दुर, मकर, मत्स्य, कच्छप, कृष्ण सर्प। को आवृत कर दक्षिण पूर्व (अग्निकोण) में जाता है तब उत्तर पश्चिम राहु देव के विमान पांच वर्ण के हैं-कृष्ण, नील, लोहित में चंद्र या सूर्य दिखाई देता है, दक्षिण पूर्व में राहु। (रक्त) हरिद्रा (पीत) शुक्ल (श्वेत)। काला राहु विमान खंजन के जब राहु देव आता हुआ, जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ वर्ण की आभा वाला है। नील राहु विमान आई तुम्बे के वर्ण की परिचारणा करता हुआ चंद्र या सूर्य की लेश्या को आवृत करता हुआ आभा वाला है। लाल राहु विमान मजीठ के वर्ण की आभा वाला है। रहता है तब लोक में मनुष्य कहते हैं, राहु ने चंद्र को ग्रहण कर लिया पीला राहु विमान हल्दी के वर्ण की आभा वाला है। सफेद राहु है। विमान शंख के ढेर के वर्ण की आभा वाला है। जब राहु देव आता हुआ, जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ जब राहुदेव एक स्थान से दूसरे स्थान में जाता हुआ, आता परिचारणा करता हुआ चंद्र या सूर्य की लेश्या को आवृत कर पास में हुआ, विक्रिया करता हुआ, परिचारणा करता हुआ चंद्र या सूर्य की होकर जाता है तब मनुष्य लोक में मनुष्य कहते हैं-चंद्र या सूर्य ने राहु लेश्या को पूर्व में आवृत कर पश्चिम में जाता है तब पूर्व में चंद्र या की कुक्षि को भेदा है-राहु की कुक्षि को भेदकर चंद्र या सूर्य निकल सूर्य दिखाई देता है, पश्चिम में राहु। गया है। जब राहु देव आता हुआ जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ, जब राहु देव आता हुआ, जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ परिचारणा करता हुआ चंद्र या सूर्य के दक्षिण भाग को आवृत कर परिचारणा करता हुआ चंद्र या सूर्य की लेश्या को आवृत कर पीछे उत्तर में जाता है तब चंद्र या सूर्य दक्षिण भाग में दिखाई देता है, जाता है तब मनुष्य लोक में मनुष्य कहते हैं-राहु ने चंद्र या सूर्य का उत्तर में राहु। वमन किया है। जब राहु देव आता हुआ जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ, जब राहु देव आता हुआ, जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ, परिचारणा करता हुआ चंद्र या सूर्य के उत्तर भाग को आवृत कर परिचारणा करता हुआ, चंद्र या सूर्य की लेश्या को सपक्ष (सर्व पार्श्व दक्षिण में जाता है तब चंद्र या सूर्य उत्तर भाग में दिखाई देता है, पूर्व पश्चिम दक्षिण उत्तर रूप) सप्रतिदिशि (सर्वप्रतिदिशि सर्व दक्षिण में राहु। विदिशा) को आवृत कर रहता है तब मनुष्य लोक में मनुष्य कहते जब राहुदेव आता हुआ, जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ हैं-राहु ने चंद्र या सूर्य को ग्रसित (संपूर्ण सर्व भाग को ग्रहण) कर परिचारणा करता हुआ चंद्र या सूर्य के उत्तर पूर्व (ईशान) भाग को लिया है। १२४. कतिविहे णं भंते ! राहू पण्णत्ते ? कतिविधः भदन्त! राहुः प्रज्ञप्तः? १२४. भंते ! राहु कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं? गोयमा ! दुविहे राहू पण्णत्ते, तं जहा- गौतम! द्विविधः राहु प्रज्ञप्तः तद्यथा- गौतम ! राहु दो प्रकार के प्रज्ञाप्त हैं, जैसेधुवराहू य, पन्चराहू य। तत्थ णं जे से ध्रुवराहुः च पर्वराहुः च। तत्र यः सः ध्रुव राहु और पर्व राहु। धुवराहू से गं बहुलपक्खस्स पाडिवए ध्रुवराहुः सः बहुलपक्षस्य प्रतिपदि जो ध्रुव राहु है, वह कृष्णपक्ष की प्रतिपदा पन्नरसतिभागेणं पन्नरसतिभागं चंदलेस्सं पञ्चदशत्रिभागेन पञ्चदशत्रि-भागं से प्रतिदिन चंद्रमा की लेश्या (मंडल) का आवरेमाणे-आवरेमाणे चिट्ठइ. तं जहा- चन्द्रलेश्याम् आवृण्वन्-आवृण्वन् पन्द्रहवां भाग आवृत करता हुआ, आवृत तिष्ठति, तद्यथा करता हुआ स्थित होता है, जैसे१. सूर्य. वृ. प. २८२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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