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भगवई
श. १२ : उ. ६ : सू. १२५
पढमाए पढम भाग, बितियाए बितियं प्रथमायां प्रथमं भाग, द्वितीयायां द्वितीयं भागं जाव पन्नरसेसु पन्नरसमं भाग। भागं यावत् पञ्चदशेषु पञ्चदशमं चरिमसमये चंदे रत्ते भवइ, अवसेसे भागम्। चरमसमये चन्द्रः रक्तः भवति, समये चंदे रत्ते वा विरत्ते वा भवइ। अवशेषे समये चन्द्रः रक्तः वा विरक्तः वा तमेव सुक्कपक्खस्स उबदसेमाणे- भवति। तमेव शुक्लपक्षस्य उपदर्शयन्उवदंसेमाणे चिट्ठइ, पढमाए पढम भागं उपदर्शयन् तिष्ठति, प्रथमायां प्रथम जाव पन्नरसेसु पन्नरसमं भाग। भागं यावत् पञ्चदशमं भागम्। चरिमसमये चंदे विरत्ते भवइ, अवसेसे चरमसमये चन्द्रः विरक्तः भवति, समये चंदे रत्ते वा विरत्ते वा भवइ। अवशेषे समये चन्द्रः रक्तः वा विरक्तः वा तत्थ णं जे से पव्वराह से जहण्णेणं भवति । तत्र यः सः पर्वराहुः सः छण्डं मासाणं उक्कोसेणं बायालीसाए जघन्येन 'षण्णां मासानाम्' उत्कर्षण मासाणं चंदस्स, अडयालीसाए द्वाचत्वारिंशत् मासानां चन्द्रस्य, संवच्छराणं सूरस्स॥
अष्टचत्वारिंशत् संवत्सराणां सूरस्य।
प्रतिपदा के दिन पहला भाग, द्वितीया के दिन दूसरा भाग यावत् पन्द्रहवें दिन (अमावस्या) पन्द्रहवां भाग (सम्पूर्णचन्द्रमंडल)। अंतिम समय (कृष्णपक्ष के अंतिम दिन) में चन्द्रमा रक्त (सर्वथा आवृत) होता है, अवशेष समय में चन्द्रमा रक्त (अंशतः आच्छादित) अथवा विरक्त (अंशतः अनाच्छादित) होता है। वही (ध्रुव राहु) शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन एक-एक पन्द्रहवें भाग को उद्घाटित करता है, जैसेप्रतिपदा के दिन पहला भाग उद्घाटित करता है। यावत् पूर्णिमा के दिन पन्द्रहवां भाग उद्घाटित करता है अर्थात् संपूर्ण चंद्रमंडल को उद्घाटित करता है। अंतिमसमय में चंद्रमा विरक्त (सर्वथा अनाच्छादित) होता है, अवशेष समय में चंद्रमा रक्त (आच्छादित) अथवा विरक्त (अनाच्छादित) होता है। जो पर्व राहु है वह जघन्यतः छह मास में चंद्र और सूर्य को तथा उत्कृष्टतः बयालीस मास में चंद्र और अड़तालीस वर्ष में सूर्य को आवृत करता है।
भाष्य
१. सूत्र १२४
राहु के दो भेद हैं-ध्रुव राहु और पर्व राहु। ध्रुव (नित्य) राहु कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को चंद्रमा का एक भाग १/१५ भाग आवृत करता है। द्वितीया को २/१५ भाग आवृत करता है। इस प्रकार अमावस को पन्द्रहवां भाग आवृत करता है। अंतिम समय में चंद्र रक्त (आवृत) होता है, अवशेष समय में चंद्र आवृत और अनावृत दोनों रहता है। उसी प्रकार शुक्ल पक्ष में एक-एक भाग (१/१५ भाग) अनावृत होता हुआ पूर्णिमा को पूर्ण अनावृत हो जाता है। अंतिम समय में चंद्र विरक्त (अनावृत) रहता है, अवशेष समय में चंद्र आवृत और अनावृत दोनों होता है। पर्व राहु कम से कम ६ मास में और अधिक से अधिक ४२ मास में चंद्रमा को आवृत करता है,
उसे चंद्रग्रहण कहा जाता है। जघन्यतः छह मास और उत्कृष्टतः ४८ वर्षों से सूर्य को आवृत कर पर्व राहु सूर्यग्रहण करता है। शब्द-विमर्श
खञ्जन-दीवट पर जमा हुआ मेल।
अलावुक-तुम्बा। वृत्तिकार के अनुसार यहां अपक्व अवस्था वाली तुम्बी विवक्षित है।
परिचारणा-काम क्रीड़ा। कुक्षि का भेदन-चंद्रमा का राहु के अंश के मध्य से निकलना।
सपक्ष-समान दिशा, सम श्रेणी की दृष्टि से सपक्ष-दाएं बाएं पार्श्व समान।
सप्रतिदिश-समान विदिक विदिशाओं में समा
ससि-आइच्च-पदं
शशि-आदित्य-पदम् १२५. से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-चदे तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- ससी, चदे ससी?
चन्द्रःशशिः, चन्द्रःशशिः ।। गोयमा! चंदस्स णं जोइसिंदस्स गौतम! चन्द्रस्य ज्योतिषेन्द्रस्य जोइसरण्णो मियंके विमाणे कंता देवा, ज्योतिषराज्ञः मृगाङ्के विमाने कान्ताः
शशि-आदित्य पद १२५. भंते ! किस अपेक्षा से यह कहा जा रहा
है-चंद्रमा शशि है, चंद्रमा शशि है? गौतम ! ज्योतिषेन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र के मृगांक (मृग के चिह्न-वाला) विमान में
१. भ. वृ. १२/१२२,१२३-खञ्जनं-दीपमल्लिकामलस्तस्य यो वर्णस्तदाभा
यस्य तत्तथा......तुम्बिका। तचेहापक्वावस्थं ग्राह्यमिति।.....परिचारयन् कामक्रीड़ां कुर्वन्........कुच्छी भिन्नत्ति राहोरंशस्य मध्येन चंद्रो गत इति
वाच्यं, चन्द्रेण राहोः कुक्षिभिन्न इति व्यपदिशन्तीति। सपक्ष-समानदिग्
यथा भवति, सप्रतिदिक्-समानविदिक् च यथा भवति। २. ठाणं, ३/४१ का टिप्पण।
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