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भगवई
कंताओ देवीओ, कंताई आसणसयणखंभभंडमत्तोवगरणाई, अप्पणा वि य णं चंदे जोइसिंदे जोइसराया सोमे कंते सुभए पियदंसणे सुरूवे ।
से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - चंदे ससी, चंदे ससी ॥
१२६. से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ - सूरे तत केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते - सूरः आदिच्चे, सूरे आदिचे ? आदित्यः सूरः आदित्यः ? गौतम ! सूरादिकाः समयः इति वा आवालिका इति वा । यावत् अवसर्पिणी इति वा उत्सर्पिणी इति वा ।
गोयमा ! सूरादिया णं समया इ वा आवलिया इ वा जाव ओसप्पिणी इ वा उस्सप्पिणी इ वा ।
से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ- सूरे तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते - सूरः आदिच्चे, सूरे आदिच्चे || आदित्यः सूरः आदित्यः ।
चंद-सूराणं कामभोग-पदं १२७. चंदस्स णं भंते! जोइसिंदस्स जोइसरण्णो कति अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ?
१. सूत्र १२५-१२६
वृत्तिकार ने शशि का अर्थ सश्री किया है।' काल गणना में सूर आदि में है इसलिए उसका नाम आदित्य है। "
व्याकरण और कोश साहित्य में शशि और आदित्य की व्युत्पत्ति भिन्न प्रकार से मिलती है। शश का अर्थ है खरगोश ।
जहा दसमसए जाव नो चेव णं मेहुणवत्तियं । सूरस्स वि तहेव ॥
१२८. चंदिम - सूरिया णं भंते! जोइसिंदा जोइसरायाणो केरिसए कामभोगे पचणुब्भवमाणा विहरंति ? गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे पढमजोव्वणुट्ठाणबलत्थे पढम जोव्वणुट्ठाणबलत्थाए भारियाए सद्धिं अचिरवत्तविवाहकज्जे अत्थगवेसण
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देवाः, कान्ताः देव्याः, कान्तानि आसन-शयन स्तम्भ - भाण्डा-मात्रोपकरणानि, आत्मना अपि च चन्द्रः ज्यौतिषेन्द्रः ज्यौतिषराजा सोमः कान्तः सुभगः प्रियदर्शनः सुरूपः । तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते - चन्द्रः शशिः, चन्द्रः शशिः ।
३. शब्दकल्प द्रुम, भाग ५ ।
४. अभिधान चिन्तामणि कोश २/१८ |
भाष्य
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१. भ. वृ. १२ / २५ - सहश्रिया वर्तत इति सश्रीः ।
२. वही, १२/१२६- तेनार्थेन सूर आदित्य इत्युच्यते, आदौ अहोरात्रसमयादीनां
भव आदित्य इति व्युत्पत्तेः, त्य प्रत्ययश्चेहार्षत्वादिति ।
चन्द्रस्य
चन्द्र- सूराणाम् कामभोग-पदम् भदन्त ! ज्यौतिषेन्द्रस्य ज्यौतिषराज्ञः कति अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः ?
यथा दशमशते यावत् नो चैव मैथुनप्रत्ययम् । सूरस्यापि तथैव ।
चन्द्रमस् - सूर्याः भदन्त ! ज्यौतिषेन्द्राः ज्यौतिषराजानः कीदृशान् कामभोगान् प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति ? गौतम! अथ यथानामकः कश्चित् पुरुषः प्रथमयौवनोत्थानबलस्थः
खरगोश के चिह्न वाला अथवा खरगोश को धारण करने वाला । " अदिति के अपत्य का नाम है आदित्य । *
प्रथमयौवनोत्थानबलस्थयां भार्यया सार्धं अचिरवृत्तविवाहकार्यः अर्थ
श. १२ : उ. ६ : सू. १२६ - १२८ कमनीय देव और देवियां हैं। कमनीय आसन, शयन, स्तंभ, भांड, अमत्र और उपकरण हैं, स्वयं ज्योतिषेन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र भी सौम्य, कमनीय, सुभग, प्रियदर्शन और सुरूप हैं।
गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है - चंद्रमा शशि है, चंद्रमा शशि है।
राहु, शशि और आदित्य -यह पूरा प्रकरण प्रक्षिप्त है। इसका मूल आधार सूर्यप्रज्ञप्ति है।
१२६. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - सूर्य आदित्य है, सूर्य आदित्य है ? गौतम ! समय, आवलिका यावत् अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी की आदि सूर्य से होती है।
गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है- सूर्य आदित्य है, सूर्य आदित्य है ।
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चंद्र-सूर्य का काम भोग पद
१२७. भंते ! ज्योतिषेन्द्र ज्योतिषराज चंद्र की कितनी अग्रमहिषी देवियां प्रज्ञप्त हैं ?
दशम शतक (१०/१० ) की भांति यावत् परिवार की ऋद्धि का उपभोग करते हैं, मैथुन रूप भोग का नहीं। इसी प्रकार सूर्य की वक्तव्यता ।
१२८. भंते! ज्योतिषेन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र-सूर्य किसके समान कामभोगों का प्रत्यनुभव करते हुए विहरण करते हैं। गौतम ! जिस प्रकार प्रथम यौवन के उद्गम में बल में स्थित पुरुष ने प्रथम यौवन के उद्गम में बल में स्थित भार्या के साथ तत्काल विवाह किया। अर्थ- गवेषणा
५. (क) भिक्षुशब्दानुशासनं ६ / २ / १६ - अदितेरपत्यम् आदित्यः । (ख) अभिधान चिन्तामणी स्वोपज्ञ टीका २/१ अदितेरपत्यम् लोकरूढ्या आदित्यः ।
६. सूर. २०/२-७1
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