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________________ ६८ भगवई श. १२ : उ. ६ : सू. १२८ याए सोलसवास विष्पवासिए, से णं गवेषणायां षोडशवर्षविप्रवासितः, स तओ लद्धढे कयकज्जे अणहसमग्गे ततः लब्धार्थः कृतकार्यः अनघसमग्रः पुणरति नियगं गिहं हव्वमागए, ण्हाए पुनरपि निजकं गृहं 'हव्वं' आगतः, कयबलिकम्मे कयकोउय-मंगल- स्नातः कृतबलिकर्मा कृतकौतुकपायच्छित्ते सव्वालंकार-विभूसिए मंगल-प्रायश्चित्तः सर्वालङ्कारमण्णुणं थालिपागसुद्धं अट्ठारस- विभूषितः मनोज्ञं स्थालीपाकशुद्धं वंजणाकुलं भोयणं भुत्ते समाणे तंसि अष्टादश-व्यञ्जनाकुल भोजनं भुक्तः तारिसगंसि वासघरंसि अभिंतरओ सन् तस्मिन् तादृशके वासगृहे सचित्तकम्मे बाहिरओ दूमिय-घट्ठ-मढे आभ्यन्तरतः सचित्तकर्माणि बाह्यतः विचित्तउल्लोग-चिल्लियतले मणि- ____धवलित-धृष्ट-मृष्टे विचित्रोल्लोकरयणपणासियंधयारे, बहुसमसुवि- ___ 'चिल्लिय' तले मणिरत्नभत्तदेसभाए पंचवण्णसरससुरभि- प्रणाशितान्धकारे बहुसम-सुविभक्तमुक्कपुष्फपुंजोवयारकलिए काला- देसभागे पञ्चवर्ण-सरस-सुरभिगुरुपवरकुंदुरुक्क - तुरुक्क - धूव-मघ- मुक्तपुष्पपुञ्जोपचारकलिते कालामत-गंधुद्धयाभिरामे सुगंधवरगंधिए गुरु-प्रवरकुन्दुरुक - तुरुष्क-धूपगंधवट्टिभूए। मघ-मघायमान-गन्धोधूताभिरामे तंसि तारिसगसि सयणिज्जसि- सुगन्ध-वरगन्धिते गन्धवर्तिभूते । सालिंगणवट्टिए उभओ विब्बोयणे तस्मिन् तादृशके शयनीये सालिङ्गनदुहओ उण्णए मझे णय-गंभीरे __वर्तिके उभयतः 'विब्बोयणे' द्वयतः गंगापुलिणवालुय - उद्दालसालिसए उन्नते मध्ये नत-गम्भीरे गंगापुलिनओयविय - खोमिय - दुगुल्लपट्ट- ___ बालुकावदालशालिशते 'ओयवियपडिच्छयणे सुविरइयरयत्ताणे क्षौमिकदुकु-लपट्टप्रतिच्छदने सुविररत्तंसुयसंवुए सुरम्मे आइणग-रूय-बूर- चितरजस्त्राणे रक्तांशुकसंवृते सुरम्ये नवणीय-तूलफासे सुगंधवर-कुसुम- आजिनक - 'रूय' - 'बूर'-नवनीतचुण्ण-सयणोवयारकलिए ताए तूलस्पर्शे सुगन्धवरकुसुम-चूर्णतारिसियाए भारियाए सिंगारागार- शयनोपचारकलिते तया तादृशया चारुवेसाए संगय-गय-हसिय-भणिय- भार्यया शृंङ्गाराकारचारुवेष्या सङ्गतचेट्ठिय - विलास - सललिय - संलाव- गत हसित-भणित-चेष्टित-विलासनिउणजुत्तोवयारकुसलाए सुंदरथण- सललित-संलाप-निपुणयुक्तोपचारजघण-बयण - कर · चरण - नयण- कुशलया सुन्दरस्तन-जघन-वदनलावण्ण - रूव - जोव्वण - विलास- कर-चरण-नयन-लावण्य - रूप - कलियाए अणुरत्ताए अविरत्ताए यौवन-विलासकलितया अनुरक्तया मणाणकलाए सद्धिं इढे सद्दे फरिसे रसे अविरतया मनोनुकूलया सार्धम् इष्टान् रूवे गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे शब्दान् स्पर्शानि रसान् रूपान् गन्धान् पञ्चणुभवमाणे विहरेज्जा, से णं पञ्चविधान् मानुष्यकान् कामभोगान् गोयमा ! परिसे विउसमणकाल- प्रत्यनुभवन् विहरेत्, सः गौतम ! पुरुषः समयंसि केरिसयं सायासोक्वं व्यवशमनकालसमये कीदृशकं सातपञ्चणुब्भवमाणे विहरइ ! सौख्यं प्रत्यनुभवन् विहरति। ओरालं समणाउसो ! ओरालं श्रमणायुष्मन्! तस्स णं गोयमा! पुरिसस्स तस्य गौतम! पुरुषस्य कामभोगेम्यः कामभोगेहिंतो वाणमंतराणं देवाणं वानमन्तराणां देवानाम् इतः अनन्तएत्तो अणंतगुणविसिट्ठतरा चेव । गुणविशिष्टतराः चैव कामभोगाः। कामभोगा। वाणमंतराणं देवाणं वानमन्तराणां देवानां कामभोगेभ्यः कामभोगेहिंतो असुरिंदवज्जियाणं असुरेन्द्रवर्जितानां भवनवासिनां देवा के लिए सोलह वर्ष प्रवासित (विदेश) रहा। वह वहां से धन प्राप्त कर कार्य संपन्न कर, निर्विघ्न रूप से शीघ्र अपने घर वापस आया, स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक (तिलक आदि) मंगल (दधि, अक्षत आदि), प्रायश्चित्त और सर्व अलंकारों से विभूषित होकर मनोज्ञ अठारह प्रकार के स्थालीपाक शुद्ध व्यंजनों से युक्त भोजन किया, भोजनकर उस अनुपम वासगृह, जो भीतर से चित्र कर्म से युक्त, बाहर से धवलित, कोमल पाषाण से घिसा होने के कारण चिकना था। उसका ऊपरी भाग विविध चित्रों से युक्त तथा अधोभाग प्रकाश से दीप्तिमान था। मणि और रत्न की प्रभा से अंधकार प्रणष्ट हो चुका था। उसका देश भाग बहुत सम और सुविभक्त था। पांच वर्ण के सरस और सुरभित मुक्त पुष्प पुञ्ज के उपचार से कलित कृष्ण अगर, प्रवर कुन्दुरु और जलते हुए लोबान की धूप से उठती हुई सुगंध से अभिराम, प्रवर सुरभि वाले गंध चूर्णों से सुगंधित गंधवर्तिका के समान उस प्रासाद में एक विशिष्ट शयनीय था। उस पर शरीर-प्रमाण उपधान (मसनद) रखा हुआ था, सिर और पैर-दोनों ओर से उभरा हुआ तथा मध्य में नत और गम्भीर था। गंगातट की बालुका की भांति पांव रखते ही नीचे धंस जाता था। वह परिकर्मित क्षौम-दुकूल पट्ट से ढका हुआ था। उसका रजस्त्राण (चादरा) सुनिर्मित था, वह लाल रंग की मसहरी से सुरम्य था, उसका स्पर्श चर्म वस्त्र, कपास, बूर वनस्पति और नवनीत के समान मृदु था। प्रवर सुगंधित कुसुम-चूर्ण के शयन उपचार से कलित था। उसकी भार्या मूर्तिमान श्रृंगार और सुन्दर वेश वाली, चलने, हंसने, बोलने और चेष्टा करने में निपुण तथा विलास और लालित्य पूर्ण संलाप में निपुण, समुचित उपचार में कुशल, सुन्दर स्तन, कटि, मुख, हाथ, पैर, नयन, लावण्य, रूप, यौवन और विलास से कलित, अनुरक्त, अत्यधिक प्रिय और मनोनुकूल भार्या के साथ इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध इन पांच प्रकार के मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का प्रत्यनुभव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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