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________________ भगवई ६६ श. १२ : उ. ६ : सू. १२६ भवणवासीणं देवाणं एत्तो अणंतगुण- नाम इतः अनन्तगुणविशिष्टतराः चैव विसिट्टतरा चेव कामभोगा। कामभोगाः। असरेन्द्रवर्जितानां भवनअमरिंदवज्जियाणं भवणवासियाणं वासिकानां देवानां कामभोगेम्यः देवाणं कामभोगेहितो असुरकुमाराणं असुरकुमाराणां देवानाम् इतः अनन्तदेवाणं एत्तो अणंतगुणविसिट्टतरा चेव । गुणविशिष्टतराः चैव कामभोगाः। कामभोगा। असुरकुमाराणं देवाणं असुरकुमाराणां देवानां कामभोगेभ्यः कामभोगेहितो गहगण-नक्वत्त- ग्रहगण - नक्षत्र - तारारूपाणां तारारूवाणं जोतिसियाणं देवाणं एत्तो ज्योतिषिकाणां देवानाम् इतः अनन्तअणंतगुणविसिहतरा चेव कामभोगा। गुण-विशिष्टतराः चैव · कामभोगाः। गहगण-नक्खत्त-तारारूवाणं जोति- ग्रहगण - नक्षत्र - तारारूपाणां सियाणं कामभोगेहिंतो चंदिम- ज्योतिषिकाणां कामभोगेभ्यः चन्द्रमस्सूरियाणं जोतिसियाणं जोतिसराईणं सूर्याणां ज्योतिषिकाणां ज्योतिषराज्ञाम् एत्तो अणंतगुणविसिट्टतरा चेव । इतः अनन्तगुणविशिष्टतराः चैव कामकामभोगा। भोगाः। चंदिमसूरिया णं गोयमा ! जोतिसिंदा । चन्द्रमस्-सूर्याः गौतम! ज्योतिषेन्द्राः जोतिसरायाणो एरिसे कामभोगे ज्योतिषराजानः ईदशान कामभोगान पचणुब्भवमाणा विहरंति॥ प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति । करता हुआ विहरण करता है। गौतम! वह पुरुष व्यवशमन काल (रति के अवसान के समय) में कैसा सातसौख्य का प्रत्यनुभव करता हुआ विहरण करता है? आयुष्मन् श्रमण ! प्रधान। गौतम ! उस पुरुष के कामभोगों से वाणमन्तर देवों के कामभोग अनन्त गुण विशिष्टतर होते हैं। वाणमन्तर देवों के कामभोगों से (असुरेन्द्र को छोड़कर) भवनवासी देवों के कामभोग अनन्त गुण विशिष्टतर होते हैं, असुरेन्द्र को छोड़कर भवनवासी देवों के कामभोगों से असुरकुमार देवों के कामभोग अनन्त गुण विशिष्टतर होते हैं। असुरकुमार देवों के कामभोगों से ग्रह-गण, नक्षत्र और तारा रूप ज्योतिष देवों के कामभोग अनन्त गुण विशिष्टतर होते हैं। ग्रह-गण, नक्षत्र और तारा रूप ज्योतिष देवों के कामभोगों से ज्योतिषेन्द्र, ज्योतिषराज चन्द्र, सूर्य के कामभोग अनन्त गुण विशिष्टतर होते हैं। गौतम! ज्योतिषेन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र सूर्य इस प्रकार के कामभोगों का प्रत्यनुभव करते हुए विहरण करते हैं। भाष्य १.सूत्र १२८ १. अविरत्ता-अत्यधिक प्रिय। विप्रिय करने पर भी जो विरक्त नहीं होती, उसके लिए अविरत्ता का प्रयोग किया गया है। इसका तात्पर्य है अत्यधिक प्रिया' २. व्यवशमन काल-पुंग्वेद के विकार का उपशम। इसका तात्पर्य है रति का अवसान। स्थालिपाक शुद्ध व्यंजन के लिए द्रष्टव्य ठाणं ३१८७ का टिप्पण। वासग्रह आदि के लिए द्रष्टव्य भगवई १२६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं बंदइ नमंसइ, बंदित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीर वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति। १२६. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही है। इस प्रकार कहकर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दननमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार कर संयम और तपस्या के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विहरण करने लगे। १. भ. वृ. १२/१२७.१२८-अविरताएं त्ति विप्रियकरणेऽप्यविरक्तया। २. वही,-व्यवशमनं-पुंवेदविकारोपशमस्तस्य यः कालसमयः स तथा तत्र रतावसान इत्यर्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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