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________________ भगवई श. १५ : सू. १५१,१५२ ३१८ वंदित्ता नमंसित्ता समणस्स भगवओ नमस्यन्ति, वन्दित्वा नमस्यित्वा महावीरस्स अंतियाओ साणकोट्टगाओ श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य चेइयाओ पडिनिक्रवमंति, पडिनिक्ख- अन्तिकात् शाणकोष्ठकात् चैत्यात् मित्ता जेणेव मालुयाकच्छए, जेणेव सीहे प्रतिनिष्क्रामन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव अणगारे तेणेव उवागच्छंति, उवाग- मालुकाकच्छकः, यत्रैव सिंहः अनगारः च्छित्ता सीहं अणगारं एवं वयासीसीहा! धम्मायरिया सदावेंति॥ अनगारम् एवमवादीत्-सिंह ! धर्माचार्याः शब्दयन्ति। नमस्कार कर श्रमण भगवान महावीर के पास से शान कोष्ठक चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर जहां मालुकाकच्छ था, जहां सिंह अनगार था-वहां आए, आकर सिंह अनगार से इस प्रकार कहा-सिंह! धर्माचार्य बुलाते हैं। १५१. तए णं से सीहे अणगारे समणेहिं ततः सः सिंहः अनगारः श्रमणैः १५१. श्रमण निर्ग्रन्थों के साथ सिंह अनगार ने निग्गंथेहिं सद्धिं मालुया-कच्छगाओ निर्ग्रन्थैः सार्धं मालुकाकच्छकात् मालुकाकच्छ से प्रतिनिष्क्रमण किया, पडिनिक्खमइ, पडिनिक्वमित्ता जेणेव प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव प्रतिनिष्क्रमण कर जहां शान कोष्ठक चैत्य साणकोट्ठए चेइए, जेणेव समणे भगवं शाणकोष्ठकं चैत्यम्, यत्रैव श्रमणः था, जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां महावीरे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भगवान् महावीरः, तत्रैव उपागच्छति, आया, आकर श्रमण भगवान महावीर को समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः । दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा आयाहिण-पयाहिणं जाव पज्जुवासति॥ आदक्षिण-प्रदक्षिणां यावत् पर्युपास्ते।। यावत् पर्युपासना की। १५२. सीहादि! समणे भगवं महावीरे सीहं सिंह अयि! श्रमणः भगवान् महावीरः १५२. अयि सिंह! श्रमण भगवान् महावीर ने अणगारं एवं वयासी-से नूणं ते सीहा! सिंहम् अनगारम् एवमवादीत्-अथ नूनं सिंह अनगार को इस प्रकार कहा-सिंह! झाणंतरियाए बट्टमाणस्स अयमेयारूवे ते सिंह ! ध्यानांतरिकायां वर्तमानस्य ध्यानांतर में वर्तमान तुम्हारे इस प्रकार का अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, संकप्पे समुप्पज्जित्था-एवं खलु ममं प्रार्थितःमनोगतः संकल्पः समुदपादि- मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-मेरे धर्माचार्य धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स समणस्स एवं खलु मम धर्माचार्यस्य धर्मोपदेशकस्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर के शरीर भगवओ महावीरस्स सरीरगंसि विउले श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य शरीरके में विपुल रोग-आतंक प्रकट हुआ-उज्ज्वल रोगायके पाउन्भूए- उज्जले जाव विपुलः रोगातङ्कः प्रादुर्भूतः-उज्ज्वलः । यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त छउमत्थे चेव कालं करेस्सति, वदिस्संति यावत् छद्मस्थः चैव कालं करिष्यति, करेंगे। अन्यतीर्थिक कहते हैं-छद्मस्थ अवस्था य णं अण्णतित्थिया-छउमत्थे चेव वदिष्यन्ति च अन्यतीर्थिकाः-छद्मस्थः में ही मृत्यु को प्राप्त करेंगे। यह इस प्रकार के कालगए-इमेणं एयारूवेणं महया चैव कालगतः-अनेन एतद्रूपेण महता महान् मनोमानसिक दुःख से अभिभूत होकर मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए मनोमानसिकेन दुःखेन अभिभूतः सन् तुम आतापन भूमि से नीचे उतर कर, जहां समाणे आयावण-भूमीओ पच्चोरुभित्ता, आतापनभूम्याः प्रत्यवरोहति, यत्रैव मालुकाकच्छ था, वहां आकर, मालुकाकच्छ जेणेव मालुया-कच्छए तेणेव __ मालुकाकच्छकः तत्रैव उपागम्य के भीतर-भीतर अनुप्रवेश कर बाढ स्वर से उवागच्छित्ता मालुया-कच्छगं अंतो-अंतो मालुकाकच्छकम् अन्तः-अन्तः 'कुहु कुहु' शब्द करते हुए रुदन करने लगा। अणुपविसित्ता महया-महया सद्देणं अनुप्रविश्य महता-महता शब्देन कुहुकुहुस्स परुण्णे। कुहुकुहोः प्ररुदितः। से नूणं ते सीहा ! अढे समझे ? अथ नूनं ते सिंह ! अर्थः समर्थ? सिंह! क्या यह अर्थ संगत है? हंता अत्थि। हन्त अस्ति। तं नो खलु अहं सीहा ! गोसालस्स तत् नो अहं सिंह! गोशालस्य सिंह! यह ऐसा नहीं है कि मंखलिपुत्र मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं अण्णाइहे मंखलिपुत्रस्य तपसा तेजसा गोशाल के तपः तेज से पराभूत होकर मेरा समाणे अंतो छण्हं मासाणं अन्वाविष्टः सन् अन्तः षण्णां मासानां । शरीर पित्त-ज्वर से व्याप्त हो गया, उसमें पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतिए पित्तज्वरपरिगतशरीरः दाहावक्रान्तिकः जलन हो गई, मैं छह माह के भीतर छउमत्थे चेव कालं करेस्सं अहण्णं अद्ध छद्मस्थः चैव कालं करिष्यामि, अहम् छद्मस्थ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त सोलस वासाइं जिणे सुहत्थी ___ अर्धषोडश वर्षाणि जिनः सुहस्ती करूंगा। मैं साढ़े पंद्रह वर्ष तक जिन-अवस्था विहरिस्सामि, तं गच्छह णं तुमं सीहा! विहरिष्यामि तत् गच्छ त्वं सिंह! में गन्धहस्ती के समान विहरण करूंगा। मंढियगाम नगरं, रेवतीए गाहावतिणीए मेण्ढियग्राम नगरम् रेवत्याः इसलिए सिंह! तुम मेंढियग्राम नगर, हां, है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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