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________________ भगवई ३१६ श. १५ : सू. १५३,१५४ गिह, तत्थं णं रेवतीए गाहावतिणीए मम गाहावतिणीए' गृहम्, तत्र अट्ठाए दुवे 'कवोय-सरीरा' उवक्खडिया, 'गाहावतिणीए' रेवत्या मम अर्थाय द्वौ तेहिं नो अट्ठो, अस्थि से अण्णे कपोत-शरीरौ उपस्कृतौ, ताभ्यां नो पारियासिए मज्जारकडए कुक्कुडमसए, अर्थः, अस्ति सः अन्यः पारिवासितः तमाहराहि, एएणं अट्ठो॥ मार्जारकृतकः कुक्कुटमांसकः, तम् आहर, एतेन अर्थः। गृहस्वामिनी रेवती के घर जाओ, वहां गृहपत्नी ने मेरे लिए दो कपोत-शरीर-मकोय के फल पकाए हैं। वे मेरे लिए प्रयोजनीय नहीं हैं। उसके पास अन्य बासी रखा हुआ मार्जारकृत अर्थात् चित्रक वनस्पति से भावित, कुक्कुट-मांस-चौपतिया शाक है, वह लाओ, वह प्रयोजनीय है। सीहेण रेवईए भेसज्जाणयण-पदं सिंहेन रेवत्या भैषज्यानयन-पदम् १५३. तए णं से सीहे अणगारे समणेणं ततः सः सिंहः अनगारः श्रमणेन भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते हट्टतुट्ट- भगवता महावीरेण एवम् उक्तः सन् चित्तमाणदिए णदिए पीइमाणे परम- हृष्ट-तुष्टचित्तः आनन्दितः नंदितः सोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए प्रीतिमनाः परमसौमस्यितः हर्षवशसमणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ विसर्पद्हृदयः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता अतुरियमचवलमसंभंतं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा मुहपोत्तियं पडिलेहेति, पडिलेहेत्ता अत्वरितमचपलमसम्भ्रान्तं मुखपोतिकां भायणवत्थाई पडिलेहेति, पडिलेहेत्ता प्रतिलिखति, प्रतिलेख्य भाजनभायणाई पमज्जइ, पमज्जित्ता भायणाई वस्त्राणि प्रतिलिखति, प्रतिलेख्य उग्गाहेइ, उग्गाहेत्ता जेणेव समणे भगवं भाजनानि प्रमाष्टि, प्रमृज्य भाजनानि महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उद्गृह्णाति, उद्गृह्य यत्रैव श्रमणः समणं भगवं महावीरं बंदइ नमसइ, भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति, वंदित्ता नमंसित्ता समणस्स भगवओ उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं महावीरस्स अंतियाओ साणकोट्ठगाओ वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा चेइयाओ पडिनिक्खमति, पडि- श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य निक्खमित्ता अतुरियमचवलमसंभंतं अन्तिकात् शाणकोष्ठक-चैत्यात् जूगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पूरओ रियं । प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य सोहेमाणे-सोहेमाणे जेणेव मेंढियगामे __ अत्वरितमचपलमसम्भ्रान्तं युगान्तरनगरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता प्रलोकनया दृष्ट्या पुरतः ईयाँ शोधयन्मेंढियगाम नगरं मझमज्झेणं जेणेव रेव- शोधयन् यत्रैव मेण्ढियग्राम नगरं तत्रैव तीए गाहावइणीए गिहे तेणेव उपागच्छति, उपागम्य मेण्ढियग्राम नगरं उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रेवतीए मध्यमध्येन यत्रैव रेवत्याः गाहावतिणीए गिहं अणुप्पविटे। 'गाहावतिणीए' गृहं तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य रेवत्याः। 'गाहावतिणीए' गृहम् अनुप्रविष्टः। सिंह द्वारा रेवती के घर से भैषज्य आनयन-पद १५३. श्रमण भगवान् महावीर के इस प्रकार कहने पर सिंह अनगार हृष्ट-तुष्ट हो गया। उसका चित्त आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मन वाला, परम सौमनस्य-युक्त, हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। उसने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदननमस्कार कर त्वरता, चपलता और संभ्रमरहित होकर मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन किया, प्रतिलेखन कर पात्र-वस्त्र का प्रतिलेखन किया, प्रतिलेखन कर पात्रों का प्रमार्जन किया, प्रमार्जन कर पात्रों को हाथ में लिया, हाथ में लेकर जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आया, आकर श्रमण 'भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर श्रमण भगवान् महावीर के पास से, शान कोष्ठक चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर त्वरता, चपलता और संभ्रम-रहित होकर युगप्रमाण भूमि को देखने वाली दृष्टि से ईर्या का शोधन करते हुए शोधन करते हुए, जहां मेंढियग्राम नगर था, वहां आया, आकर में ढियग्राम नगर के बीचों-बीच जहां गृहस्वामिनी रेवती का घर था, वहां आया, आकर रेवती के घर में अनुप्रविष्ट हो गया। १५४. तए णं सा रेवती गाहावतिणी सीहं ततः सा रेवती गाहावतिणी सिंहम् अणगारं एज्जमाणं पासति, पासित्ता अनगारम् आयन्तं पश्यति, दृष्ट्वा हहतुट्टा खिप्पामेव आसणाओ अन्भुढेइ, हृष्टतुष्टा क्षिप्रमेव आसनात् अन्भुहेत्ता सीहं अणगारं सत्तट्ट पयाई अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय सिंहम् अणुगच्छइ,अणुगच्छित्ता तिक्खुत्तो अनगारं सप्ताष्टौ पदानि अनुगच्छति, आयाहिण-पयाहिणं करेति, करेत्ता वंदति अनुगम्य त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा वयासी-संदिसंतु णं देवाणुप्पिया! नमस्यित्वा एवमवादीत्-संदिशन्तु किमागमणप्पयोयणं? देवानुप्रियाः ! किमागमन-प्रयोजनम्? १५४. गृहस्वामिनी रेवती ने सिंह अनगार को आते हुए देखा। वह देखकर हृष्ट-तुष्ट हो गई। शीघ्र ही आसन से उठी, उठकर सातआठ पैर सिंह अनगार के सामने गई। सामने जाकर दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वंदननमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! आप संदेश दें-आपके आगमन का प्रयोजन क्या है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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