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________________ भगवई श. १५ : सू. १५५ ३२० १५५. तए णं से सीहे अणगारे रेवति। ततः सः सिंहः अनगारः रेवतीं 'गाहा- १५५. सिंह अनगार ने गृहस्वामिनी रेवती से इस गाहावइणिं एवं वयासी-एवं खलु तुमे वतिणीं' एवमवादीत्-एवं खलु त्वया प्रकार कहा-देवानुप्रिय! श्रमण भगवान् देवाणुप्पिए! समणस्स भगवओ देवानुप्रिये ! श्रमणस्य भगवतः महावीर के लिए तुमने दो कपोत-शरीर अर्थात् महावीरस्स अट्ठाए दुवे कवोय-सरीरा महावीरस्य अर्थाय द्वौ कपोत-शरीरौ मकाय के फल पकाए हैं, वे प्रयोजनीय नहीं हैं। उवक्खडिया, तेहिं नो अट्ठो, अत्थि ते उपस्कृतौ, ताभ्याः नो अर्थः, अस्ति ते तुमने कल अन्य बासी रखा हुआ, मार्जारकृत अण्णे पारियासिए मज्जारकडए अन्यः पारिवासितः मार्जारकृतकः अर्थात् चित्रक वनस्पति से भावित कुक्कुटमांस कुक्कुडमंसए एयमाहराहि, तेणं अट्ठो॥ कुक्कुटमांसकः एतम् आहर, तेन अर्थः। अर्थात् चौपतिया शाक है, वह लाओ, वह प्रयोजनीय है। भाष्य १. सूत्र १५२-१५५ इस प्रसंग में तीन शब्दों पर विचार करना अपेक्षित हैइस प्रकरण में कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग हुआ है, जो बड़े अटपटे १. कवोय-सरीरा लगते हैं, क्योंकि सुनने में मांसवाचक होने से संदेह होता है कि क्या २. मज्जारकडए मांसाहार का वर्जन उस समय नहीं था? किन्तु यह भ्रांति है क्योंकि ३. कुक्कुडमंसए। जिन शब्दों का प्रयोग यहां हुआ है वे सब 'शाकाहार' या वनस्पति के कपोत शरीर अर्थ में प्रयुक्त है। वृत्तिकार ने भी यह शंका प्रस्तुत की है, पर उसका कवोय-सरीर शब्द का सामान्य अर्थ कपोत-शरीर अर्थात् समाधान अपने प्रकार से करने का प्रयत्न किया है। हमें इन शब्दों के ___ 'कबूतर का शरीर' ऐसा समझा जाएगा। किन्तु वनस्पति-कोशअर्थों को जानने के लिए वनस्पति-कोश एवं प्राचीन निघण्टु आदि को साहित्य के अनुशीलन से पता चला है कि 'कपोत शरीर' नाम 'मकोय' सामने रखना होगा। नामक वनस्पति का है, जिसका दूसरा प्रसिद्ध नाम 'काममाची' भी १. जै. आ. व. को. पृ. ३१०-मांस प्रकरण-आगमों में पशु, पक्षी और जलचर श्लोक २५३ और २५४ में बीजपूर (बिजौरा) के पर्यायवाची नाम हैं। के नाम वनस्पति के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। कहीं-कहीं इनके नाम के साथ श्लोक २५५ और २५६ में उसके गुणधर्म हैं। जो यहां उद्धृत किए जा रहे हैं: मांस शब्द का प्रयोग भी हुआ है, जिससे ये शब्द चिंतनीय बन गए हैं। सूर्य उष्णं वातकफश्वासकासतृष्णावमिप्रणुत्। प्रज्ञप्ति के १०वें पाहुड के १२०वें सूत्र में कृत्तिका नक्षत्र से लेकर भरणीनक्षत्र तस्य त्वक् कटु तिक्तोषणा गुर्वी स्निग्धा च दुर्जरा॥२५५॥ तक २८ नक्षत्रों का भोजन दिया गया है। उसमें लिखा है-उस नक्षत्र में वे कृमिश्लेष्मानिलहरा मांसं स्वादु हिमं गुरु। वस्तु खाकर जाने से कार्य की सिद्धि होती है। बृहणं श्लेष्मलं स्निग्ध, पित्तमारुतनाशनम् ॥२५६॥ १. रोहिणी नक्षत्र में मांस, मृगसरा नक्षत्र में मृगमांस, अश्लेषा नक्षत्र में दीपिक बिजौरे का फल उष्ण वीर्य होता है। वात एवं कफ नाशक, श्वास, मांस, पूर्व फाल्गुनी नक्षत्र में मेष मांस, उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र नखी मांस कास, तृष्णा तथा वमन को दूर करने वाला होता है। इसके फल की उत्तराभाद्रपदा में वराहमांस, रेवति नक्षत्र में जलचर मांस, अश्विनी नक्षत्र में त्वचा-कटुतिक्त, उष्णवीर्य, गुरु, स्निग्ध, चिरपाकी, कृतिहर, कफ और तित्तिरि मांस खाकर जाने से कार्य की सिद्धि होती है। वात को दूर करने वाली होती है। २. भगवती सूत्र में उल्लेख है कि गोशाल के द्वारा तेजोलब्धि का प्रयोग मांस-फल का गूदा-स्वादिष्ट, शीतल, गुरु, बृंहण (धातुवर्धक) कफवर्धक, करने से भगवान महावीर के शरीर में दाह लग गई। उस समय अपने शिष्य स्निग्ध तथा वातपित्त को नष्ट करता है। सिंह नामक अणगार को कहा-तुम मेंढियाग्राम नामक नगर में रेवती गाथापति (कैयदेव निघंटु ओषधि वर्ग. पृ. ५१) के घर जाओ। उसने मेरे लिए दो कपोतशरीर उपस्कृत किया है, उसको मत ऊपर के दो प्रमाणों से स्पष्ट है कि मांस शब्द का प्रयोग वनस्पतियों के लाना, लेकिन वासी मार्जारकृत कुक्कुटमांस है उसको ले आना। यहां गूदे के अर्थ में होता है। प्रज्ञापना (१/३५) में एगट्ठिया (एकास्थिक) वर्ग कपोतशरीर और कुक्कुटमांस ये शब्द चिंतनीय हैं। ऊपर के दोनों है, जिसमें ३२ वनस्पतियों के नाम हैं। एकास्थिक का अर्थ है-एक गुठली सूत्रों-भगवती और सूर्यप्रज्ञप्ति में शब्दों के साथ मांस शब्द आया है। पहले वाले। यहां अस्थि शब्द गुठली के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। त्वचा, मज्जा, मांस शब्द विमर्शनीय है। मांस शब्द का अर्थ मांस ही होता है या इसका नस, गर्भाशय आदि शब्द भी वनस्पति के विवरण में दिए हुए हैं। इससे दूसरा अर्थ भी उपयुक्त हो सकता है? पक्षी या पशु वाचक शब्द वनस्पति स्पष्ट है कि अस्थि और मांस शब्द वनस्पति के लिए प्रयुक्त हुए हैं। विशेष के वाचक हैं। ऐसी मान्यता जैनों में परम्परा से आ रही है। तब मांस २. भ. पृ. १५/१५५-'दुवे कवोया' इत्यादेः श्रूयमाणमेवार्थ केचिन्मन्यते, अन्ये शब्द का अर्थ भी वनस्पति के संदर्भ में खोजना आवश्यक हो गया है। इस - त्याहु:-कपोतकः पक्षिविशेषस्तद्वद् ये फले वर्णसाधयत्तेि कपोते-कूष्मांडे प्रश्न का समाधान हमें आयुर्वेद के ग्रंथों में ही खोजना होगा। श्रीमद् वृद्धवाग्भट्ट हस्वे कपोते कपोतके ते च ते शरीरे वनस्पतिजीवदेहत्वात् कपोतकशरीरे, विरचित अष्टांगसंग्रह के सूत्रस्थान सप्तमोध्याय, श्लोक १६८, पृ. ६३ पर अथवा कपोतकशरीरे इव धूसरवर्णसाधादेव कपोतकशरीरे कूष्माण्डफले ध्यान देना होगा एव ते उपसंस्कृते-संस्कृते। भल्लातकस्य त्वम् मांस बृंहण स्वादु शीतलम्॥ 'मज्जारकडए' इत्यादेरपि केचित् श्रूयमाणमेवार्थ मन्यन्ते, अन्ये त्याहुः भिलावे की छाल और मांस बृंहण (रस रक्तादिवर्धक), स्वादु तथा मार्जारो-वायुविशेषस्तदुपशमनाय कृतं-संस्कृतं मार्जारकृतम्, अपरे शीतल होते हैं। भिलावे के मांस का अर्थ होता है-भिलावे का गूदा भाग। त्वाहुः-मार्जारो-विरालिकाभिधानो वनस्पतिविशेषस्तेन कृतं-भावितं दूसरा उदाहरण कैयदेव निघंटु के ओषधिवर्ग पृ. ५० के श्लोक हैं। यत्तत्तथा, किं तत् ? इत्याह-'कुर्कुटकमांसकं' बीजपूरकं कटाहम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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