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________________ भगवई ३२१ श. १५ : सू. १५५ है। इस विषय में 'जैन आगम वनस्पति कोश' का निम्नांकित विवेचन मननीय है' किया है तथा उसका आधार 'वर्ण-साम्य' बताया है, फिर भी कोशकारों के अनुसार यह स्पष्टतः ‘मकोय' का ही द्योतक सिद्ध होता है। मज्जारकड कबोयसरीर (कपोतशरीर) मकोय (भ. १५ / १५२) विमर्श - कपोत का पर्यायवाची एक नाम पारापत है। पारापत के फल कबूतर के अंडों के समान होते हैं। पारापतपदी आयुर्वेद में काकजंघा को कहते हैं । धन्वन्तरि निघंटु पृ. १८६ में काकजंघा को काकमाची विशेष माना है। काकमाची शब्द मकोय शाक का वाचक है। पारापत के पर्यायवाची नाम साराम्लकः सारफलो, रसालश्च पारापतः ॥ ३२५ ॥ कपोताण्डोपमफलो, महापारावतोऽपरः ॥ साराम्ल, सारफल, रसाल ये पारावत के पर्याय हैं, इसके फल कबूतर के अंडों के सदृश होते हैं। (कैयदेव नि. औषधिवर्ग पृ. ६२ ) पारापतपदी के पर्यायवाची नाम काकजङ्घा, ध्वाङ्गजङ्घा, काकपादा तु लोमशा पारापतपदी दासी, नदीक्रान्ता प्रचीबला ॥ २० ॥ ध्वाङ्गजङ्घा, काकपादा, लोमशा, पारापतपदी, नदीक्रान्ता और प्रचीबला ये काकजंघा (काकमाची विशेष) के पर्याय हैं। ( धन्वतरि नि. ४ / २०, पृ. १८६ ) शास्त्रीय गुणों की दृष्टि से काकजंघा विषमज्वरनाशक, कफपित्तशामक, तिक्त, चर्मरोगनाशक एवं रक्तपित्त बाधिर्य, क्षत, विष एवं कृमि में लाभदायक होनी चाहिए। ( भाव. नि. ४ / २०, पृ. १८६ ) काकमाची के अन्य भाषाओं में नाम हिन्दी - मकोय, छोटीमकोय । बंगाली - काकमाची, गुडकामाई । मराठी- कानोणी। गुजराती - पीलुड़ी। फारसी - रूबाह तुर्बुक । अरबी इनबुस्सा लव। अंग्रेजी-ऋीवशप छळसहीीहरवश ( गार्डेन नाइटशेड) । ले.- Solanum nigrum linn (सोलॅनम् नाइग्रम् लिन.) Fam. Solanaceae (सोलेनॅसी) । उत्पत्ति स्थान - यह प्रायः सब प्रान्तों में एवं ८००० फीट तक पश्चिम हिमालय में उत्पन्न होती है। विवरण - इसका क्षुप १ से १.५ हाथ तक ऊंचा होता है और शाखाएं सघन होती हैं। यह गर्मी में नष्ट हो जाता है और वर्षा के अंत में उत्पन्न हो जाड़े में खूब हराभरा दिखलाई पड़ता है। इसके पत्ते अखंड, लहरदार या कभी-कभी दन्तुर या खंडित, लट्वाकार, प्रासवत् लट्वाकार या आयताकार, ४१.७ इंच तक बड़े और उनका फलक प्रायः वृन्त पर नीचे तक फैला रहता है। पुष्प छोटे, सफेद और पत्र कोण से हटकर निकले हुए पुष्पदंड पर समस्थ मूर्धजक्रम में निकले रहते हैं। फल गोल और पकने पर काले हो जाते हैं। कभी-कभी लाल या पीले भी होते हैं। ( भाव. नि. पृ. ४३८ ) इसका तात्पर्य यह हुआ कि यहां कवोयसरीर शब्द 'मकोय के फल के लिए प्रयुक्त है, न कि कबूतर के शरीर के लिए। यद्यपि वृत्तिकार ने इसका अर्थ कुष्मांड यानी कुम्हड़ा (या पेठा) १. जै. आ. व. को., पृ. ३११ - ३१२। Jain Education International ‘मार्जारकृत' का सामान्यतः संबंध 'मार्जार' यानी बिल्ली के साथ जुड़ता है, किन्तु वनस्पति कोशों के आधार पर इसका अर्थ 'रक्त चित्रक' होता है। 'जैन आगम वनस्पति कोश' के अनुसारमज्जारकड - मज्जार (मार्जार) रक्त चित्रक भ. १५/१५२। मार्जार के पर्यायवाची नाम कालो व्यालः कालमूलोऽतिदीप्यो मार्जारोऽग्निदाहकः पावकञ्च । चित्राङ्गोऽयं रक्तचित्रो महाङ्गः, स्यादुदाह्वश्चित्रकोऽन्यो गुणाढ्यः ॥ ४६ ॥ काल, व्याल, कालमूल, अतिदीप्य, मार्जार, अग्नि, दाहक, पावक, चित्राङ्ग, रक्तचित्र तथा महाङ्ग ये सब रक्त चित्रक के ग्यारह नाम हैं। (राज. नि. ६ / ४६, पृ. १४३ ) चित्रक की उपयोगिता विषज्वर में यकृत, प्लीहा वृद्धि होकर पाण्डु हो गया हो तो इसका सेवन करना चाहिए। विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में मज्जारशब्द चोपतिया शाक में संस्कार (पुट) देने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। चित्रक का पुट हुआ चोपतिया शाक विषज्वर को नाश करने में द्विगुणित लाभ करता है। क्योंकि चोपतिया शाक त्रिदोषघ्न और ज्वर नाशक है और रक्त चित्रक भी विषम ज्वर नाशक है इसीलिए भगवान् महावीर ने सिंह अनगार के द्वारा रेवती के घर से यह संस्कारित शाक मंगाया था। वृत्तिकार ने 'मर्जार' का संबंध वायु विशेष या 'विरालिका' नामक वनस्पति-विशेष के साथ जोड़ा है, पर वनस्पति द्वारा प्रदत्त विवरण अधिक संगत और प्रामाणिक प्रतीत होता है।' कुक्कुडमंस 'कुर्कुट' अर्थात् मुर्गे और 'मंस' अर्थात् 'मांस' के साथ शाब्दिक संबंध जुड़ने से यह शब्द भ्रामक बन जाता है। जैन आगम वनस्पति कोश में इसकी मीमांसा इस प्रकार की गई है कुक्कुडमंस - (कुक्कुटमांस) चोपतिया शाक, सुनिषण्णक भ. १५/१५२। कुक्कुट के पर्यायवाची नाम शितिवारः शितिवरः स्वस्तिकः सुनिषण्णकः श्रीवारकः सुचिपत्रः, पर्णकः कुक्कुटः शिखी ॥ शितिवार, शितिवर, स्वस्तिक, सुनिषण्णक, श्रीवारक, सूचिपत्र, पर्णक, कुक्कुट और शिखी ये चौपतिया के संस्कृत नाम हैं। (भाव. नि. शाकवर्ग. पृ. ६ / ७३, ६७४) अन्य भाषाओं में नाम हिन्दी - चौपतिया, सुनसुनिया साग। बंगाली सुषुणीशाक, शुनिशाक, शुशुनी शाक। लेटिन - Marsilea minuta linn (मार्सिलया माइन्सूटा लिन. ) Fam. Rhizocarpeae (राइज्झो कार्पी)। २. जै. आ. व. को., पृ. ३१४- ३१५ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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