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________________ श. १५ : सू. १५६-१५८ ३२२ भगवई उत्पत्ति स्थान-यह शाकवर्गीय वनस्पति भारतवर्ष के प्रायः सब प्रान्तों के सजल स्थानों में कहीं न कहीं पायी जाती है। वर्षाऋतु में यह अधिक उत्पन्न होती है। विवरण-इसके नीचे पतला एवं सशाख कांड होता है। इसके पत्ते पानी के ऊपर तैरते हुए दिखाई पड़ते हैं। प्रत्येक पत्रदंड पर चार- चार पत्ते स्वस्तिक क्रम में निकले रहते हैं, इस कारण इसे चतुष्पत्री या चौपतिया भी कहते हैं, पत्ते और दंड आकार के छोटे बड़े हआ करते हैं। पत्ते चांगेरी के पत्तों के समान किन्तु उनसे बड़े होते हैं। बीजाणुकोष एक विशेष प्रकार की अंडाकार परन्तु कुछ-कुछ चिपटी रचना के अन्दर रहते हैं, जो फलों की तरह मालूम होती है। इसका साग निद्राजनक तथा दीपन गुणवाला होता है। निद्रा लाने के लिए तथा अग्निमांद्य में इसका उपयोग करते हैं। (भा. नि. शाकवर्ग वृ.६७४) विमर्श-बंगाल में यह शाक बहुलता से खाया जाता है। भगवान् महावीर ने ज्वरदोष को मिटाने के लिए इस शाक को मंगाया था। त्रिदोषघ्न और ज्वरनाशक इस शाक के गुण हैं।' यहां पर वृत्तिकार ने इसका संबंध बीजपूरक कटाह यानी बिजौरा पाक के साथ जोड़ा है, पर वनस्पति कोश से प्राप्त जानकारी अधिक प्रामाणिक प्रतीत होती है। उपर्युक्त समग्र विवेचन से यह भलीभांति स्पष्ट हो रहा है कि भ्रांतिवश कुछ विद्वान् केवल शाब्दिक साम्य के आधार पर यह मान्यता बनाते रहे हैं कि जैन आगम में जैन मुनियों द्वारा मांसाहार' के उल्लेख मिलते हैं। वनस्पति और प्राणी-जगत् के नामों का साम्य केवल प्राचीन प्राकृत-संस्कृत भाषा में ही नहीं, बहुधा अन्य भाषाओं में भी प्रचलित है। आधुनिक वनस्पति-विज्ञान में अनेक वनस्पतियों के नाम अंग्रेजी में भी प्राणियों के नाम के साथ सादृश्य रखते हैं। अस्तु, यह अपेक्षित है कि उपरितन सादृश्य के आधार पर ही विद्वान किसी बिभत्स निष्कर्ष पर न पहुंचे; नए अनुसंधान के लिए सूक्ष्म अनुशीलन और ठोस प्रमाणों का आधार लिया जाय।' १५६. तए णं सा रेवती गाहावइणी सीहं ततः सा रेवती 'गाहावइणी' सिंहम् १५६. गृहस्वामिनी रेवती ने सिंह अनगार से अणगारं एवं वयासी-केस णं सीहा! से अनगारम् एवमवादीत्-कः एषः सिंहः ! इस प्रकार कहा-सिंह! वह ऐसा ज्ञानी अथवा नाणी वा तवस्सी वा, जेणं तव एस अहे सः ज्ञानी वा तपस्वी वा, येन तव एषः तपस्वी कौन है जिसने मेरा यह रहस्यपूर्ण मम ताव रहस्सकडे हव्वमक्खाए, जओ अर्थः मम तावत् रहस्यकृतः 'हव्वं' अर्थ बताया, जिससे यह तुम णं तुमं जाणासि? आख्यातः यतः त्वं जानासि? जानते हो? १५७. तए णं से सीहे अणगारे रेवई गाहा- ततः सः सिंहः अनगारः रेवतीं १५७. सिंह अनगार ने गृहस्वामिनी रेवती से इस वइणिं एवं वयासी-एव खलु रेवई! मम ___ 'गाहावइणिं' एवमवादीत्-एवं खलु प्रकार कहा-रेवती! मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे भगवं रेवति ! मम धर्माचार्यः धर्मोपदेशक: श्रमण भगवान् महावीर उत्पन्न-ज्ञान-दर्शन के महावीरे उप्पण्णनाणदसणधरे अरहा श्रमणः भगवान् महावीरः उत्पन्नज्ञान- धारक, अर्हत्, जिन, केवली, अतीत, जिणे केवली तीयपचुप्पन्नमणागय- दर्शनधरः अर्हत् जिनः केवली अतीत- वर्तमान और भविष्य के विज्ञाता, सर्वज्ञ और वियाणए सव्वण्णू सव्वदरिसी जेणं मम प्रत्युत्पन्नानागतविज्ञायक: सर्वज्ञः सर्वदर्शी सर्वदर्शी हैं। उन्होंने मुझे तुम्हारा यह एस अहे तव ताव रहस्सकडे येन मम एषः अर्थः तव तावत् रहस्यकृतः रहस्यपूर्ण अर्थ बताया, जिससे यह मैं जानता हल्वमक्खाए, जओ णं अहं जाणामि॥ 'हव्यं' आख्यातः, यद् अहं जानामि। हूं। १५८. तए णं सा रेवती गाहावतिणी ततः सा रेवती गाहावतिणी सिंहस्य १५८. गृहस्वामिनी रेवती सिंह अनगार के पास सीहस्स अणगारस्स अंतियं अयमढे अनगारस्य अन्तिकम् एतमर्थं श्रुत्वा इस अर्थ को सुनकर, अवधारणकर हृष्ट-तुष्ट सोचा निसम्म हट्टतुट्ठा जेणेव भत्तघरे निशम्य हृष्टतुष्टा यत्रैव भक्तगृहं तत्रैव हो गई। जहां भोजनगृह था, वहां आई, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पत्तगं उपागच्छति, उपागम्य पात्रकं मुञ्चति, आकर चौपतिया शाक वाला बर्तन निकाला, मोएति, मोएत्ता जेणेव सीहे अणगारे मुक्त्वा यत्रैव सिंहः अनगारः तत्रैव । निकालकर जहां सिंह अनगार था, वहां आई, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहस्स उपागच्छति, उपागम्य सिंहस्य वहां आकर सिंह अनगार के पात्र में वह सर्व अणगारस्स पडिग्गहगंसि तं सव्वं सम्म अनगारस्य प्रतिग्रहके तत् सर्वं सम्यक् चौपतिया शाक सम्यक् रूप से निसर्जित निस्सिरति॥ निसृजति (निस्सिरति)। किया। १. जै आ. व. को., पृ. ३१२-३१३॥ Dog Lichens Peltigera canina २..New Concepts in Botany, vol. I. pp. 436, 437 (by Dr. Archna Old Man's beard Usnea berbata Jain). Horse tail Equisetum Giant horse tail Calamophyton, Calamites Name of Vegetation Botanical Name Maiden hair Fern Adiantum (resembling animal's name) Otster Mushroom Lady Fern Athyrium Plearicus Chicken Polyporus ३. देखें, आचार्य महाप्रज्ञ, 'मांसाहार : एक विवेचन', लेख, अर्हत् वचन, वर्ष Wolf Moss Letharia vulpina १३, अंक ३,४, २००१, पृ.१५-१८ कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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