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________________ भगवई १५६. तए णं तीए रेवतीए गाहावतिणीए तेणं दव्वसुद्धेणं दायगसुद्धेणं पडिगाहसुद्धे तिविणं तिकरणसुद्धेणं दाणेणं सीहे अणगारे पडिलाभिए समाणे देवाउए निबद्धे, संसारे परितीकए गिहंसि य से इमाई पंच दिव्वाई पाउन्भूयाइ, तं जहावसुधारा बुट्ठा, दसद्धवणे कुसुमे निवातिए, चेलुक्वेवे कए, आहयाओ देवदुंदुभीओ, अंतरा वि य णं आगासे अहो दाणे, अहो दाणे त्ति घुट्ठे ॥ १६०. तए णं रायगिहे नगरे सिंघाडग-तिग- चउक्क- चच्चर- चउम्मुह-महापह-पसु बहुज अण्णमण्णस्स एवमाइक्खड़ एवं भासइ एवं पण्णवेइ एवं परूबेड़--धन्ना णं देवाणुप्पिया ! रेवई गाहावइणी, कयत्था णं देवाणुप्पिया! रेबई गाहावइणी, कयपुण्णा णं देवाणुप्पिया ! रेवई गाहावइणी, कयलक्खणा णं देवाणुप्पिया ! रेवई गाहावाणी, कया णं लोया देवाणुप्पिया! रेवतीए गाहावतिणीए, सुलद्धे णं देवाणुप्पिया! माणुस्सए जम्मजीवियफले रेवतीए गाहावतिणीए, जस्स णं गिहंसि तहारूवे साधू साधुरूवे पडिलाभिए समाणे इमाई पंच दिव्वाई पाउन्भूयाई, तं जहा - वसुधारा बुट्ठा जाव अहो दाणे, अहो दाणे त्ति घुट्टे, तं धन्ना कत्था कयपुण्णा कयलक्खणा, कया णं लोया, सुलद्धे माणुस्सए जम्मजीवियफले रेवतीए गहावतिणीए, रेवतीए गाहावतिणीए ॥ ३२३ ततः तया रेवत्या तेन द्रव्यशुद्धेन दायकशुद्धेन प्रतिग्राहकशुद्धेन त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धेन दानेन सिंहः अनगारः प्रतिलाभितः सन् देवायुष्कः निबद्धः, संसारः परीतीकृतः गृहे च तस्या इमानि पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूतानि तद्यथावसुधारा वृष्टा, दशार्धवर्णः कुसुमः निपातितः, आहताः देवदुन्दुभयः, अन्तरा अपि च आकाशे अहोदानम् अहोदानम् इति घुष्टम् । Jain Education International ततः राजगृहे नगरे श्रृंगाटक- त्रिकचतुष्क- चत्वर- चतुर्मुख- महापथ- पथेषु बहुजनः अन्योन्यम् एवमाख्याति एवं भाषते एवं प्रज्ञापयति, एवं प्ररूपयतिधन्या देवानुप्रियाः ! रेवती गाहावाइणी, कृतार्थं देवानुप्रियाः ! रेवती 'गाहावइणी', कृतपुण्या देवानुप्रियः ! रेवती 'गाहावइणी', कृतलक्षणा देवानुप्रियाः ! रेवती 'गाहावइणी', कृताः लोकाः देवानुप्रियाः ! रेवत्या 'गाहावतिणीए' सुलब्धं देवानुप्रियाः ! मानुष्यकं जन्मजीवितफलं रेवत्या 'गाहावतिणीए ' यस्य गृहे तथारूपः साधु साधुरूपे प्रतिलाभिते सति इमानि पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूतानि तद्यथा - वसुधारा वृष्टा यावत् अहोदानम् अहोदानम् इति घुष्टम्, तत् धन्या कृतार्था कृतपुण्या कृतलक्षणा, कृताः लोकाः, सुलब्धं मानुष्यकं जन्म- जीवितफलं रेवत्या 'गाहावतिणीए' रेवत्या 'गाहावतिणीए' । भाष्य १. सूत्र १६० यहां मूल पाठ में 'रायगिहे' है', जबकि यह सारा प्रसंग 'मेंढियग्राम' का चल रहा है। किस कारण से यहां 'राजगृह' का उल्लेख १६१. तए णं से सीहे अणगारे रेवतीए गाहावतिणीए गिहाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता मेंढियगामं नगरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छर, निग्गच्छित्ता जहा गोयमसामी जाव भत्तपाणं पडिदंसेति, पडिदंसेत्ता समणस्स भगवओ १. अंगसुत्ताणि, भाग २ (भगवई), १५ / १६० ततः सः सिंहः अनगारः रेवत्याः 'गाहावतिणीए' गृहात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य मेण्टियग्रामं नगरं मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यथा गौतमस्वामी यावत् भक्तपानं प्रतिदर्शयति, प्रतिदर्श्य श्रमणस्य श. १५ : सू. १५६-१६१ १५६. गृहस्वामिनी रेवती ने द्रव्य शुद्ध, दाता शुद्ध, प्रतिग्राहक शुद्ध - त्रिविध, त्रिकरण शुद्ध दान के द्वारा सिंह अनगार को प्रतिलाभित कर देवायुष्य का निबंध किया, संसार को परीत किया, उसके घर ये पांच दिव्य प्रकट हुए, जैसे- रत्नों की धारा निपातवृष्टि, पांच वर्ण वाले फूलों की वृष्टि, ध्वजा फहराने लगी, देवदुन्दुभियां बजीं, आकाश के अंतराल में 'अहोदानम् अहोदानम्' की उद्घोषणा हुई। गया है - यह विमर्शनीय है। संभवतः 'जाव' की पूर्ति में यह विपर्यास हो गया हो, ऐसा लगता है। For Private & Personal Use Only १६०. राजगृह' नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन एवं प्ररूपणा करते हैं- देवानुप्रियो ! गृहस्वामिनी रेवती धन्या है, देवानुप्रियो ! गृहस्वामिनी रेवती कृतार्थ है, देवानुप्रियो ! गृहस्वामिनी रेवती कृतपुण्या है । देवानुप्रियो ! गृहस्वामिनी रेवती कृतलक्षणा है । देवानुप्रियो ! गृहस्वामिनी रेवती ने इहलोक और परलोक दोनों को सुधार लिया है। देवानुप्रियो ! गृहस्वामिनी ने मनुष्य जन्म और जीवन का फल अच्छी तरह से प्राप्त किया है, जिसके घर में तथारूप साधु के साधु रूप में प्रतिलाभित होने पर ये पांच दिव्य प्रकट हुए, जैसे - रत्नों की धारा निपातवृष्टि यावत् 'अहोदानम् - अहोदानम्' की उद्घोषणा । इसलिए वह धन्या, कृतार्था कृतपुण्या और कृतलक्षणा है। उसने इहलोक और परलोक दोनों को सुधारा है। गृहस्वामिनी रेवती ने मनुष्य जन्म और जीवन का फल अच्छी तरह से प्राप्त किया है। १६१. सिंह अनगार ने गृहस्वामिनी के घर से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर यि ग्राम नगर के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर गौतम स्वामी की भांति यावत् भक्त- पान दिखलाया, दिखलाकर श्रमण भगवान् महावीर के हाथ में उस सर्व www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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