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________________ भगवई ३०७ असब्भाबुब्भावणाहि मिच्छत्ताभि- कारकः अकीर्तिकारकः बहुभिः निवेसेहिं य अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा । असद्भावोद्भावनाभिः मिथ्यात्वाभिबुग्गाहेमाणे वुष्पाएमाणे विहरित्ता सएणं निवेशैः च आत्मानं च परं च तदुभयं वा तेएणं अण्णाइडे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स व्युद्ग्राहयन् व्युत्पादयन् विहृत्य स्वकेन पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए तेजसा अन्वाविष्टः सन् अन्तः छउमत्थे चेव कालं करेस्सं। समणे भगवं सप्तरात्रस्य पित्तज्वरपरिगतः शरीरः महावीरे जिणे जिणपलावी, अरहा दाहावक्रान्तिकः छद्मस्थः चैव कालं अरहप्पलावी, केवली केवलिप्पलावी, करिष्यामि। श्रमण: भगवान् महावीरः सवण्णू सव्वण्णुप्पलावी, जिणे जिणसदं जिनः जिनप्रलापी, अर्हत् अर्हत्पगासेमाणे विहरइ-एवं संपेहेति, प्रलापी, केवली केवलिप्रलापी, सर्वज्ञः संपेहेत्ता आजीविए थेरे सदावेइ, सदावेत्ता सर्वज्ञ-प्रलापी, जिनः जिनशब्द उच्चावय-सबह-सावियए पकरेति, पकरेत्ता प्रकाशयन् विहरति-एवं सम्प्रेक्षते, एवं वयासी-नो खलु अहं जिणे जिणप्प- सम्प्रेक्ष्य आजीविकान् स्थविरान् लावी जाव पगासेमाणे विहरए। अहण्णं शब्दयति, शब्दयित्वा उच्चावच-शपथगोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए । शापितकान् प्रकरोति, प्रकृत्य समणमारए समणपडिणीए आयरिय- एवमवादीत-नो खल अहं जिनः उवज्झायाणं अयसकारए, अवण्णकारए जिनप्रलापी यावत् प्रकाशयन् विहृतः। अकित्तिकारए बहहिं असम्भावुब्भाव- अहं गोशालः चैव मंखलिपुत्रः श्रमण- णाहि मिच्छत्ताभिनिवेसेहिं य अप्पाणं वा घातकः श्रमणमारकः श्रमण-प्रत्यनीकः परं वा तदुभयं वा बुग्गाहेमाणे वुप्पाएमाणे आचार्य-उपाध्यायानाम् अयशकारकः विहरित्ता सएणं तेएणं अण्णाइहे समाणे अवर्णकारकः अकीर्ति-कारकः बहुभिः अंतो सत्तरत्तस्स पित्तज्जरपरिगयसरीरे असद्-भावोद्भावनाभिः मिथ्यात्वाभि- दाहवक्कंतीए छउमत्थे चेव कालं करेस्सं। निवेशैः च आत्मानं वा परं वा तदुभयं वा समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी व्युद्गाहयन् व्युत्पादयन् विहृत्य स्वकेन जाव जिणसई पगासेमाणे विहरइ, तं तेजसा अन्वाविष्टः सन् अन्तः सप्ततुम्भं णं देवाणुप्पिया! ममं कालगयं . रात्रस्य पित्तज्वरपरिगतशरीरः दाहावजाणित्ता वामे पाए सुंबेणं बंधेह, बंधेत्ता क्रान्तिकः छद्मस्थःचैव कालं करिष्यामि। तिक्वुत्तो मुहे उट्ठभेह, उट्ठभेत्ता सावत्थीए श्रमणः भगवान महावीरः जिनः जिननगरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर- प्रलापी यावत् जिनशब्दं प्रकाशयन चउम्मुह-महापह-पहेसु आकट्ट-विकदि विहरति, तत् यूयं देवानुप्रियाः! मां करेमाणा महया-महया सद्देणं कालगतं ज्ञात्वा वा मे पादे शुम्बेन उग्योसेमाणा-उग्घोसेमाणा एवं वदह-नो बध्नीत, बद्ध्वा त्रिः मुखे अवष्ठीवत, खलु देवाणुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते अवष्ठीव्य श्रावस्त्यां नगर्यां शृंगाटकजिणे जिणप्पलावी जाव विहरिए। एस णं त्रिक-चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुख-महापथगोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए पथेषु आकर्ष-विकृष्टिं कुर्वन्तः महताजाव छउमत्थे चेव कालगए। समणे भगवं महता शब्देन उद्घोषयन्तः उद्घोष - महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव विहरइ। यन्तः एवं वदथ- नो खलु देवानुप्रियाः ! महया अणड्डी-असक्कार-समुदएणं मम गोशालः मंखलि-पुत्रः जिनः जिनप्रलापी यावत् विहृतः। एषः गोशालः चैव सरीरगस्स नीहरणं करेज्जाह-एवं वदित्ता मंखलिपुत्रः श्रमण-घातकः यावत् कालगए॥ छद्मस्थः चैव कालगतः। श्रमणः भगवान् महावीरः जिनः जिन-प्रलापी यावत् विहृतः। महता अनृद्धि-असत्कारसमुदयेन मम शरीरकस्य निर्हरणं कुरुतः (करेज्जाह)-एवम् उदित्वा कालगतः। श. १५ : सू. १४१ करने वाला, अकीर्ति करने वाला हूं। मैंने बहुत असद्भाव की उद्भावना और मिथ्यात्व अभिनिवेश के द्वारा स्वयं को दूसरे को तथा दोनों को भ्रांत करते हुए, मिथ्या धारणा में व्युत्पन्न करते हुए विहरण किया। अपने तेज से अभिभूत होकर सात रात के भीतर मेरा शरीर पित्त-ज्वर से ग्रस्त होकर दाह से अपक्रांत होकर मैं छद्मस्थ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त करूंगा। श्रमण भगवान महावीर जिन होकर जिन-प्रलापी, अर्हत् होकर अर्हत्-प्रलापी, केवली होकर केवली-प्रलापी, सर्वज्ञ होकर सर्वज्ञ-प्रलापी, जिन होकर जिन शब्द से अपने आपको प्रकाशित करते हुए विहार कर रहे हैं-इस प्रकार संप्रेक्षा की, संप्रेक्षा कर आजीवक स्थविरों को बुलाया, बुलाकर शपथ दिलाकर इस प्रकार कहा-मैं जिन होकर जिन-प्रलापी नहीं हूं यावत् प्रकाशित करते हुए विहरण किया। मैं ही मंखलिपुत्र गोशाल हूं। मैं श्रमण-घातक, श्रमण-मारक, श्रमणप्रत्यनीक, आचार्य-उपाध्यायों का अयश करने वाला, अवर्ण करने वाला, अकीर्ति करने वाला हूं। मैंने बहुत असद्भाव की उद्भावना और मिथ्यात्व अभिनिवेश के द्वारा स्वयं को, दूसरे को तथा दोनों को भ्रांत करते हुए, मिथ्या धारणा में व्युत्पन्न करते हुए विहरण किया। अपने तेज से पराभूत होने पर मेरा शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया, मैं सात रात के भीतर दाह से अपक्रांत होकर छद्मस्थ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त करूंगा। इसलिए देवानुप्रियो! तुम मुझे मृत्यु को प्राप्त जानकर मेरे बाएं पैर को रज्जु से बांधना, बांधकर तीन बार मुंह पर थूकना, थूककर श्रावस्ती नगरी से शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर मुझे घसीटते हुए बाढ स्वर से उद्घोषणा करते हुए, उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहनादेवानुप्रियो! मंखलिपुत्र गोशाल जिन होकर जिन-प्रलापी नहीं था। यावत् छदस्थ अवस्था में मृत्यु को प्राप्त हुआ है। श्रमण भगवान् महावीर जिन होकर जिन-प्रलापी हैं यावत् विहरण कर रहे हैं। महान् अऋद्धि और असत्कार समुदय के द्वारा मेरे शरीर की मरणोत्तर क्रिया करना-इस प्रकार कहकर वह मुत्यु को प्राप्त हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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