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श. १५ : सू. १४१
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भगवई
भाष्य
१. सूत्र १४१
प्रस्तुत शतक में उपलब्ध काल-विषयक सामग्री तथा भगवान् महावीर के महत्त्वपूर्ण जीवन-प्रसंगों के आधार पर हम एक परिपूर्ण काल-क्रम बना सकते हैं। पहले निम्नांकित तथ्यों पर ध्यान देना होगा
१. महावीर ने ३० वर्ष की आयु में (मृगशीर्ष मास में) दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के समय एक वस्त्र रखा था, उसे दीक्षा के तेरह मास पश्चात् त्याग दिया और सर्वथा अचेलक हो गए।
२. उनके साधना-काल के दूसरे वर्षावास में प्रथम मास में (अर्थात् दीक्षा के बीस मास पश्चात्) राजगृह के बाहिरिका नालन्दा में तन्तुवायशाला में गोशालक से प्रथम मिलन तथा गोशालक द्वारा शिष्य बनाने की प्रार्थना का अस्वीकार। उस समय तक गोशालक वस्त्रधारी था।
३. उसी वर्षावास के दूसरे, तीसरे मास के अन्त में भी गोशालक द्वारा पुनः शिष्य बनाने की प्रार्थना और महावीर द्वारा पुनः अस्वीकार।
४. चतुर्थ मास के अन्त में (अर्थात् मृगशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा) के दिन जब महावीर ने वहां से कोल्लाक सन्निवेश में अपना चतुर्थ मासखमण का पारण किया, तब गोशाल ने तंतुवायशाला में अपने वस्त्र, भांड आदि छोड़ दिए। तत्पश्चात् वह कोल्लाक सन्निवेश पहंचा तथा उस समय पुनः प्रार्थना करने पर महावीर ने कोल्लाक सन्निवेश के बाहर पणियभूमि में उसे अपना शिष्य बना लिया।
(यह महावीर की दीक्षा के चौबीस मास पश्चात् हुआ, जबकि महावीर स्वयं अपनी दीक्षा के तेरह मास पश्चात् ही अचेलक हो गए थे। इसका तात्पर्य कि महावीर पहले अचेलक हो गए थे, गोशाल बाद में हुआ।)
५. भगवान महावीर का जन्म ई. पू. ५६६
भगवान महावीर की दीक्षा ई. पू. ५६६ भगवान महावीर का कैवल्य ई. पू. ५५७ -ये सर्वमान्य तिथियां हैं।
उक्त तथ्यों के आधार पर महावीर ने ५६६ ई. पू. मृगशिर (नवम्बर) कृष्णा दशमी को दीक्षा ग्रहण की थी और उसके पश्चात् प्रथम वर्षावास (५६८ ई. पू. जुलाई-अक्टूबर) अस्थिक ग्राम में बिताया। दीक्षा के १३ मास बाद उन्होंने वस्त्र त्याग दिया तथा अचेलक हो गए। यह घटना भी ५६८ ई. पू. नवम्बर-दिसम्बर की है। इसके पश्चात् महावीर ने द्वितीय वर्षावास ५६७ ई. पू. (जुलाईअक्टूबर) नालंदा बाहिरिका की तंतुवायशाला में किया। तंतुवायशाला १. भ. १५।२०। ३. आयारो,६१/४। ३. वही,१५१२३-२६ ४. भ. १५/३०-४२। ५. भ. १५/४५-५५॥ ६. (क) भ. १५/५६ (ख) आव. चूर्णि, पूर्वभाग, पृ. २६७,२६८ |
में वर्षावास का प्रथम मासखमण प्रारंभ हआ-उस समय वहां मंखत्व. वृत्ति वाले, हाथ में चित्र फलक तथा वस्त्रधारी, दंडधारी गोशाल (मंखलिपुत्र) का भी आगमन हुआ; उसने भी वहीं वर्षावास किया। उस समय महावीर अचेलक थे, गोशाल सचेलक था। प्रथम मासखमण के पारणा के बाद गोशाल ने महावीर के दिव्य-अतिशयों से प्रभावित होकर स्वयं को शिष्य के रूप में स्वीकार करने की विनती की, किन्तु महावीर ने उसे स्वीकार नहीं किया। तंतुवायशाला में दूसरा
और तीसरा मासखमण हुआ; प्रत्येक वार पारणा के बाद गोशाल द्वारा प्रार्थना की गई और महावीर द्वारा अस्वीकृत हुई।
चतुर्थ मासखमण सम्पन्न होने पर ५६७ ई. पू., नवम्बर में वर्षावास संपन्न हुआ। महावीर तंतुवायशाला से विहार कर कोल्लाक सन्निवेश में पारणा करने के पश्चात् बाहर पणियभूमि में पहुंचे। उधर गोशाल ने जब महावीर को तंतुवायशाला में नहीं देखा, तो अपने समस्त भांड-उपकरण, वस्त्र, चित्रफलक आदि वहीं छोड़कर महावीर को खोजते-खोजते कोल्लाग सन्निवेश पहुंचा और पुनः स्वयं को शिष्य बनाने के लिए अनुनय किया; इस बार महावीर ने उसे शिष्य रूप में स्वीकार कर लिया।
इसका तात्पर्य यह हआ कि महावीर स्वयं तो अपनी दीक्षा के १३ मास बाद अचेलक हो गए थे तथा गोशाल की दीक्षा इसके १२ मास पश्चात् हुई। गोशाल तब तक सचेलक था।
ई. पू. ५६७ नवम्बर से लेकर ई. पू. ५५६ तक (८ वर्षों तक) गोशाल महावीर के शिष्य के रूप में उनके साथ रहा। ई. पू. ५६० में लाढ, वजभूमि, सुम्हभूमि, अनार्यदेश में तथा ई. पू. ५५६ में कूर्मग्राम से सिद्धार्थ ग्राम की यात्रा के दौरान तिल के पौधे को उखाड़ने की घटना हुई;" तत्पश्चात् वापिस कूर्मग्राम में आते समय अग्नि वैश्यायन बालतपस्वी द्वारा गोशाल पर उष्ण तेजोलेश्या का प्रयोग, महावीर द्वारा शीतल तेजोलेश्या छोड़कर गोशाल की रक्षा तथा महावीर द्वारा तेजोलेश्या-प्राप्ति की विधि गोशालक को बताने की घटनाएं हुई; पुनः दूसरी बार कूर्मग्राम से सिद्धार्थग्राम की
ओर जाते समय तिल के पौधे की निष्पत्ति, महावीर द्वारा वनस्पतिकायिक जीवों में 'पउट्ट परिहार' के सिद्धांत का प्रतिपादन तथा गोशाल द्वारा सभी जीवों में पउट्ट परिहार के सिद्धांत का निरूपण करना और महावीर से अपक्रमण अर्थात् पृथग होने की घटनाएं हुई।
अलग होने के पश्चात् छह मास तक विधि के अनुसार तपस्या कर ई. पू. ५५८ में गोशाल ने तेजोलेश्या की उपलब्धि की। इसके पश्चात् वह आजीवक-संप्रदाय में सम्मिलित हो गया।
(ग) श्रमण महावीर, पृ. ११५ । ७. वही, १५/५७-५६; आव. चूर्णि, पृ. २६७-२६८; श्रमण महावीर, पृ.
११५॥ ८. भ. १५/६०-६१; आव. चूर्णि, पूर्वभाग, पृ. २६८; श्रमण महावीर, पृ.
११५,११६॥ ६. वही, १५/७२-७५; आव. चूर्णि, पूर्वभाग, पृ. २६६ । १०. वही, १५७६।
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