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श. १२: उ. १: सू.६
भगवई चाहता था।' यह मतान्तर का अर्थ संगत नहीं है। सूत्रकृतांग के पाक्षिक पौषध से अनारंभ पौषध का अर्थ ही संगत है। उवासगदसाओ में 'पोसहोववास' (पौषधोपवास) शब्द का प्रयोग मिलता है। इसमें दो शब्द हैं पौषध और उपवास' यह प्रतिपूर्ण पौषध का द्योतक है। तत्वार्थवार्तिक में पर्व के दिन किए जाने वाले उपवास का अर्थ प्रोषधोपवास किया है। प्रोषधोपवास की विस्तृत जानकारी के लिए जैनेन्द्र कोश द्रष्टव्य है।
शब्द-विमर्श
अस्साएमाणा-थोड़ा स्वाद लेते हुए। विस्साएमाणा-विशेष स्वाद लेते हुए। परिभाएमाणा-देते हुए। परिभुञ्जमाणा-परिभोग करते हुए।
अतीतकालीन प्रत्यय में वार्तमानिक प्रत्यय का प्रयोग किया गया है। तात्पर्यार्थ यह होगा-आस्वादन करने के बाद हम पाक्षिक पौषध का प्रतिजागरण करते हुए विहार करेंगे।'
६. तए णं तस्स संखस्स समणोवासगस्स ततः तस्य शङ्खस्य श्रमणोपासकस्य ६. 'उस श्रमणोपासक शंख के मन में इस
अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए अयमेतद्पः आध्यात्मिकः चिन्तितः आकारवाला आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, मणोगए संकप्पे समुष्पज्जित्था-नो। प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न खलु मे सेयं तं विपुलं असणं पाणं समुदपादि-नो खलु मम श्रेयः तत् । हुआ। यह मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं है कि मैं खाइमं साइमं अस्साएमाणस्स । विपुलम् अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यं उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य विस्साएमाणस्स परिभाएमाणस्स आस्वादयतः विस्वादयतः परिभाजयतः का स्वाद लेता हुआ, विशिष्ट स्वाद लेता परिभुजेमाणस्स पक्वियं पोसहं परिभुजानस्य पाक्षिकं पौषधं हुआ, परस्पर एक दूसरे को खिलाता हुआ, पडिजागरमाणस्स विहरित्तए, सेयं खलु प्रतिजाग्रतः विहर्तुम्, श्रेयः खलु मम भोजन करता हुआ, पाक्षिक पौषध की मे पोसहसालाए पोसहियस्स। पौषधशालायां पौषधिकस्य ब्रह्मचारिणः प्रतिजागरणा करता हुआ विहरण करूं। बंभचारिस्स ओमुक्कमणिसुवण्णस्स अवमुक्तमणिसुवर्णस्य व्यपगतमाला- यह मेरे लिए श्रेयस्कर है कि मैं बवगय - मालावण्णग - विलेवणस्स वर्णक-विलेपनस्य निक्षिप्तशस्त्र- पौषधशाला में उपवास करूं। ब्रह्मचारी निक्खित्तसत्थमुसलस्स एगस्स मुसलस्य एकस्य अद्वितीयस्य रहूं। सुवर्ण-मणि को छोड़कर, माला, अबिइयस्स दब्भसंथारोवगयस्स दर्भसंस्तारोपगतस्य पाक्षिकं पौषधं सुगंधित चूर्ण और विलेपन से रहित, शस्त्र पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स प्रतिजाग्रतः विहर्तुम् इति कृत्वा एवं मूसल आदि का वर्जन कर, अकेला, दूसरों विहरित्तए त्ति कट्ट एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता सम्प्रेक्षते, सम्प्रेक्ष्य यत्रैव श्रावस्ती के सहाय्य से निरपेक्ष होकर, दर्भजेणेव सावत्थी नगरी, जेणेव सए गिहे, नगरी, यत्रैव स्वकं गृहं, यत्रैव उत्पला संस्तारक पर बैठकर पाक्षिक पौषध की जेणेव उप्पला समणोवासिया, तेणेव श्रमणोपासिका, तत्रैव उपागच्छति, प्रतिजागरणा करूं। इस प्रकार संप्रेक्षा की, उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उप्पलं उपागम्य उत्पलां श्रमणोपासिकाम् संप्रेक्षा कर, जहां श्रावस्ती नगरी थी, जहां समणोवासियं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता आपृच्छति, आपृच्छ्य यत्रैव पौषध- अपना घर था, जहां श्रमणोपासिका जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, शाला तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य उत्पला थी, वहां आया, वहां आकर उवागच्छित्ता पोसहसालं अणु- पौषधशालां अनुप्रविशति, अनुप्रविश्य श्रमणोपासिका उत्पला से पूछा, पूछकर पविस्सइ, अणुपविस्सित्ता पोसहसालं पौषधशालां प्रमाष्टिं, प्रमृज्य उच्चार- जहां पौषधशाला थी, वहां आया, वहां पमज्जइ, पमज्जित्ता उचारपास- प्रस्रवणभूमिं प्रतिलिखति, प्रतिलिख्य आकर पौषधशाला में अनुप्रवेश किया, वणभूमि पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता दर्भसंस्तारकं संस्तृणोति, संस्तृत्य अनुप्रवेश कर पौषधशाला को प्रमार्जित दब्भसंथारगं संथरइ, संथरित्ता। दर्भसंस्तारकम् आरोहति, आरुह्य किया, प्रमार्जित कर उचार-प्रस्रवण भूमि दन्भसंथारगं दुरुहइ, दुरुहित्ता पौषधशालायां पौषधिकः ब्रह्मचारी का प्रतिलेखन किया, प्रतिलेखन कर दर्भपोसहसालाए पोसहिए बंभचारी अवमुक्तमणिसुवर्णः व्यपगत-माला- संस्तारक को बिछाया, बिछाकर दर्भ
णिसुवण्णे बवगयमाला- वर्णकविलेपनः निक्षिप्तशस्त्र-मुसलः संस्तारक पर आरूढ़ हुआ, आरूढ़ होकर
१. भ. १२/४-५ : अन्ये तु व्याचक्षते-इह किल पौषधं पर्वदिनानुष्ठानं तच
द्वेधा-इष्टजनभोजनदानादिरूपमाहारादिपौषधरूपं च। तत्र शंखः
इष्टजनभोजनदानरूपं पौषधं कर्तुकामः। २. सूय. २/७/२६ ३. उवा. १/४२ ४. त. रा. वा. ७/२: अशनपानभक्ष्य लेह्यलक्षण चतुर्विधाहारपरित्याग
इत्यर्थः। प्रौषधशब्दः पर्वपर्यायवाची। प्रोषधे उपवासः प्रोषधोपवासः।
५. भ. वृ. १२/४-५ : आसाएमाणत्ति ईषत्स्वादयन्तो बहु च त्यजन्तः
इक्षुखण्डादेरिव "विस्साएमाणत्ति विशेषेण स्वादयन्तोऽल्पमेव त्यजन्तः खजूरादेरिव 'परिभाएमाण' त्ति ददतः ‘परिभुंजेमाण' त्ति सर्वमुपभुजाना अल्पमप्यपरित्यजन्तः, एतेषां च पदानां वार्त्तमानिकप्रत्ययान्तत्वेऽप्यतीतप्रत्ययान्तता द्रष्टव्या......यचेहातीत-कालीनप्रत्ययान्तत्वेऽपि वार्तमानिकप्रत्ययोपादानं तद्भोजनानंतर-मेवाक्षेपेण पौषधाभ्युपगमप्रदर्शनार्थम्।
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