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श. १२ : उ. १ : सू. २-५
भगवई २. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे। तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी २. उस काल और उस समय में भगवान् महावीर
परिसा जाब पज्जुवासइ। तए ण ते समवसृतः। परिषद् यावत् पर्युपास्ते। आए। परिषद् यावत् पर्युपासना की। वे समणोवासगा इमीसे कहाए लट्ठा ततः ते श्रमणोपासकाः अनया कथया
श्रमणोपासक इस कथा को सुनकर हृष्टसमाणा जहा आलभियाए जाव लब्धार्थाः सन्तः यथा आलभिकायां तुष्ट चित्त वाले हो गए। आलभिका की पज्जुवासंति। तए णं समणे भगवं । यावत् पर्युपासते। ततः श्रमणः भगवान् भांति वक्तव्यता यावत् पर्युपासना की। महावीरे तेसिं समणोवासगाणं तीसे य महावीरः तेषां श्रमणोपासकानां तस्यां श्रमण भगवान् महावीर ने उन श्रमणोमहतिमहालियाए परिसाए धम्म च महामहत्यां परिषदि धर्म परिकथयति पासकों को उस विशालतम परिषद् में धर्म परिकहेइ जाव परिसा पडिगया॥ यावत् परिषद् प्रतिगता।
कहा यावत् परिषद् लौट गई।
३. तए णं ते समणोवासगा समणस्स ततः ते श्रमणोपासकाः श्रमणस्य
भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा भगवतः महावीरस्य अन्तिकं धर्म निसम्म हट्टतट्टा समणं भगवं महावीरं श्रुत्वा निशम्य हष्टतुष्टाः श्रमणं वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता भगवन्तं महावीरं वन्दन्ते नमस्यन्ति, पसिणाई पुच्छंति, पुच्छित्ता अट्ठाई वन्दित्वा नमस्यित्वा प्रश्नान् पृच्छन्ति, परियादियंति, परियादियित्ता उठाए पृष्ट्वा अर्थान् पर्याददति, पर्यादाय उठेति, उद्वेत्ता समणस्स भगवओ उत्थया उत्तिष्ठन्ति, उत्थाय श्रमणस्य महावीरस्स अंतियाओ कोट्ठयाओ भगवतः महावीरस्य अन्तिकात् चेइयाओ पडिनिक्खमंति, कोष्ठकात् चैत्यात् प्रतिनिष्क्रामन्ति, पडिनिक्वमित्ता जेणेव सावत्थी नगरी प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव श्रावस्ती नगरी तत्रैव तेणेव पहारेत्थ गमणाए॥
प्रादीधरत् गमनाय।
३. वे श्रमणोपासक श्रमण भगवान् महावीर के
पास धर्म सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट हो गए। उन्होंने श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर प्रश्न पूछे। पूछकर अर्थ को ग्रहण किया, ग्रहण कर, उठकर खड़े हुए। खड़े होकर श्रमण भगवान् महावीर के पास से, कोष्ठक चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया। प्रतिनिष्क्रमण कर जहां श्रावस्ती नगरी थी वहां जाने के लिए चिंतन किया।
४. तए णं से संखे समणोवासए ते ततः सः शङ्खः श्रमणोपासक: तान्
समणोवासए एवं बयासी-तुम्भे णं श्रमणोपासकान् एवमवादीत्-यूयं देवाणुप्पिया! विपुलं असणं पाणं खाइमं देवानुप्रियाः! विपुलम् अशनं पानं खाद्यं साइमं उवक्खडावेह। तए णं अम्हे तं। स्वाद्यम् उपस्कारयत। ततः वयं तत् विपुल असणं पाणं खाइमं साइमं अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यम् अस्साएमाणा विस्साएमाणा आस्वादयन्तः विस्वादयन्तः परिभाएमाणा परिभुजेमाणा परिवयं परिभाजयन्तः परिभुजानाः पाक्षिकं पोसहं पडिजागरमाणा विहरिस्सामो। पौषधं प्रतिजाग्रतः विहरिष्यामः।
४. 'वह श्रमणोपासक शंख उन श्रमणोपासकों
से इस प्रकार बोला-देवानुप्रिय ! तुम विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को तैयार करवाओ। हम उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का स्वाद लेते हुए, विशिष्ट स्वाद लेते हुए, परस्पर एक दूसरे को खिलाते हुए, भोजन करते हुए पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करते हुए विहरण
करेंगे।
५. तए णं ते समणोवासगा संखस्स
समणोवासगस्स एयमढे विणएणं पडिसुणेति॥
ततः ते श्रमणोपासकाः शङ्कस्य ५. उन श्रमणोपासकों ने श्रमणोपासक शंख के श्रमणोपासकस्य एतदर्थं विनयेन इस अर्थ को विनयपूर्वक स्वीकार किया। प्रतिश्रृण्वन्ति।
भाष्य १. सूत्र ४-५
विशेष विवरण के लिए उत्तराध्ययन ५/२३ का टिप्पण त्तिकार ने पाक्षिक पौषध का अर्थ अव्यापार पौषध किया द्रष्टव्य है। जयाचार्य ने अनारंभ पौषध का दसवें व्रत में समावेश है। सूत्रकृतांग में पाक्षिक पौषध शब्द का प्रयोग है। उसकी व्याख्या किया है। वृत्तिकार ने इस सन्दर्भ में मतान्तर का उल्लेख किया है। में पौषध के चार प्रकार बतलाए गए हैं
उसके अनुसार पौषध का अर्थ है पर्व दिन का अनुष्ठान। वह दो १. आहार पौषध ३. ब्रह्मचर्य पौषध
प्रकार का होता है-इष्ट जन को भोजन देना और आहार आदि का २. शरीर-संस्कार पौषध ४. अनारंभ पौषधर त्याग करना। शंख इष्ट जन को भोजन देने वाला पौषध करना १. भ. १२/४-५ पौषधं अव्यापारपौषधम्।
धर्म तणी ते पुष्ट जीमी पोषह नाम तसु। २. सूय. २/७/२६ का टिप्पण
दशमों ब्रत अदुष्ट, पिण नहीं व्रत इग्यारमो॥ ३. भ. जो. ४/२४६/२५
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