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श. १२ : उ. १ : सू. २२-२४
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भगवई
भाष्य. १. सूत्र २०-२१
सदा जागृत रहता है इसलिए उसकी जागरिका का नाम बुद्ध ___ सोना और जागना-ये दो विपरीत शारीरिक क्रियाएं हैं। इसी जागरिका है। प्रकार सुषुप्ति और जागरिका-ये दो विपरीत आंतरिक क्रियाएं होती २. अबुद्ध जागरिका-केवली के अतिरिक्त शेष साधुओं की हैं। अज्ञान और प्रमाद की निद्रा से मुक्त होना जागरिका है। उसके जागरिका का नाम अबुद्ध जागरिका है। तीन प्रकार हैं
३. सुद्रष्टा जागरिका-तत्त्ववित् और व्रती श्रावक की १. बुद्ध जागरिका-ज्ञानावरण के क्षीण होने पर केवली जागरिका का नाम सुदृष्ट्र जागरिका है।'
२२. तए णं से संखे समणोवासए समणं ततः सः शङ्खः श्रमणोपासकः श्रमणं
भगवं महावीरं बंदइ नमसइ, बंदित्ता भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, नमंसित्ता एवं वयासी-कोहवसट्टे णं वन्दित्वा
नमस्यित्वा भंते ! जीवे किं बंधइ ? किंपकरेइ ? किं एवमवादीत्-क्रोधव-शातः भदन्त ! चिणाइ? किं उवचिणाइ!
जीवः किं बध्नाति ? किं प्रकरोति ?
किं चिनोति ? किम् उपचिनोति? संखा ! कोहवसट्टे णं जीवे आउय- शङ्ख ! क्रोधवशातः जीवः आयुष्कवर्जाः वज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ सप्तकर्मप्रकृतीः शिथिल-बन्धनबद्धाः सिढिलबंधणबद्धाओ धणिय-बंधण- धणिय बन्धनबद्धाः प्रकरोति, ह्रस्वबद्धाओ पकरेइ, हस्सकालठिइयाओ कालस्थितिकाः दीर्घकालस्थितिकाः दीहकालठिइयाओ पकरेइ, मंदाणु- प्रकरोति, मन्दानुभावाः तीव्रानुभावाः भावाओ तिब्वाणुभावाओ पकरेइ, प्रकरोति, अल्पप्रदेशाग्राः बहुप्रदेशाग्राः अप्पपएसग्गाओ बहुप्पएसग्गाओ प्रकरोति, आयुष्कं च कर्म स्यात् पकरेइ, आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ, बध्नाति, स्यात् नो बध्नाति, सिय नो बंधइ, अस्सायावेयणिज्जं चणं असातवेदनीयं च कर्म भूयः भूयः कम्मं भुज्जो-भुज्जो उवचिणाइ, उपचिनोति, अनादिकं च 'अणवदग्गं' अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं दीर्घाद्धं चतुरन्तं संसारकन्तारं चाउरतं संसारकंतारं अणुपरियट्टइ॥ व्यतिव्रजति।
२२. श्रमणोपासक शंख ने श्रमण भगवान्
महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार कहा-भंते ! क्रोध के वश आर्त बना हुआ जीव क्या बंध करता है? क्या प्रकर्ष करता है ? किसका चय करता है ? किसका उपचय करता है ? शंख ! क्रोध के वश आर्त बना हुआ जीव आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की शिथिल बन्धन-बद्ध प्रकृतियों को गाढ़ बंधन-बद्ध करता है, अल्पकालिक स्थिति वाली प्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थिति वाली करता है, मन्द अनुभाव वाली प्रकृतियों को तीव्र अनुभाव वाली करता है, अल्पप्रदेश-परिमाण वाली प्रकृतियों को बहुप्रदेश-परिमाण वाली करता है, आयुष्य कर्म का बंध कदाचित् करता है और कदाचित् नहीं करता, वह असातवेदनीय कर्म का बहुत-बहुत उपचय करता है और आदिअन्तहीन दीर्घपथ वाले चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है।
२३. माणवसट्टे णं भंते ! जीवे किं बंधइ?
किं पकरेइ ? किं चिणाइ? किं उवचिणाइ?
मानवशातः भदन्त! जीवः किं बध्नाति ? किं प्रकरोति? किं चिनोति? किंम् उपचिनोति?
२३. भंते ! मान के वश आर्त बना हुआ जीव
क्या बंध करता है? क्या प्रकर्ष करता है? किसका चय करता है? किसका उपचय करता है ? इस प्रकार पूर्ववत् यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है।
एवं चेव जाव अणुपरियट्टइ॥
एवं चैव यावत् अनुपरिवर्तते।
२४. मायवसट्टे णं भंते ! जीवे किं बंधइ ? मायावशातः भदन्त ! जीवः किं २४. भंते! माया के वश आर्त बना हुआ जीव
किं पकरेइ ? किं चिणाइ ? किं बध्नाति? किं प्रकरोति? किं क्या बंध करता है? क्या प्रकर्ष करता उवचिणाइ? चिनोति ? किम् उपचिनोति?
है? किसका चय करता है? किसका
उपचय करता है? १. भ. १२/१६-२१ : बुद्धा; केवलावबोधेन, ते च बुद्धानां-व्यपोढाज्ञाननिद्राणां चाबुद्धानां छद्मस्थ-ज्ञानवतां या जागरिका सा तथा तां जाग्रति।
जागरिका-प्रबोधो बुद्धजागरिका तां कुर्वन्ति।.........अबुद्धाः ...........सुदु दरिसणं जस्स सो सुदक्खू तस्स जागरिया-प्रमादकेवलज्ञानाभावेन यथासंभवं शेषज्ञानसभावाच युद्धसदृशास्ते निद्राव्यपोहेन जागरणं सुदक्खुजागरिया तां जागरितः कृत्यानित्यर्थः ।
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