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भगवई
१५
श. १२ : उ. १ : सू. २५-२७
एवं चेव जाव अणुपरियट्टइ।
एवं चैव यावत् अनुपरिवर्तते।
इस प्रकार पूर्ववत् यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है।
२५. लोभवसष्टे णं भंते! जीवे किं बंधइ?
किं पकरे? किं चिणाइ? किं उबचिणाइ?
२५. लोभवशातः भदन्त ! जीवः किं बध्नाति? किं प्रकरोति? किं चिनोति? किम् उपचिनोति?
२५. भंते ! लोभ के वश आर्त बना हुआ जीव
क्या बंध करता है? क्या प्रकर्ष करता है? किसका चय करता है? किसका उपचय करता है ? इस प्रकार पूर्ववत् यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है।
एवं चेव जाव अणुपरियट्टइ॥
एवं चैव यावत् अनुपरिवर्तते।
भाष्य १. सूत्र २२-२५
३. अनुभाव परिवर्तन-मंद अनुभाव को तीव्र अनुभाव के रूप कषाय का आलापक कर्म परिवर्तन का आलापक है। प्रस्तुत में बदला जा सकता है। प्रकरण में परिवर्तन के चार सूत्रों का निर्देश है
५. प्रदेश संख्या परिवर्तन-अल्प प्रदेश परिमाण को बह प्रदेश १.बंध परिवर्तन-शिथिल बंधन-बद्ध कर्म को गाढ बंधन-बद्ध परिमाण में बदला जा सकता है। किया जा सकता है।
प्रस्तुत संदर्भ में भगवई (१/४६-४७) सूत्र और उसका भाष्य २. स्थिति परिवर्तन-हस्व काल की स्थिति को दीर्घकाल की तथा उत्तरज्झयणाणि २६/२३ का सूत्र तथा उसका टिप्पण द्रष्टव्य स्थिति में बदला जा सकता है।
है। तुलना के लिए देखें-ठाणं ४/७५-६५, कषाय और पुनर्जन्म के
सन्दर्भ में देखें-ठाणं ४/३५४,४८२,४८५, ६५३। २६. तए णं ते समणोवासगा समणस्स ततः ते श्रमणोपासकाः श्रमणस्य २६. वे श्रमणोपासक भगवान महावीर के पास
भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमहूँ भगवतः महावीरस्य अन्तिकम् एतमर्थं इस अर्थ को सुनकर अवधारण कर भीत, सोचा निसम्म भीया तत्था तसिया श्रुत्वा निशम्य भीताः अस्ताः तृषिताः त्रस्त, दुःखित और संसार-भय से उद्विग्न संसारभउम्बिग्गा समणं भगवं महावीरं संसारभयोदविग्नाः श्रमणं भगवन्तं हो गए, उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर को बंदइ नमसइ, बंदित्ता नमंसित्ता जेणेव महावीरं वन्दन्ते नमस्यन्ति, वन्दित्वा वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर संखे समणोबासए तेणेव उवागच्छंति, नमस्यित्वा यत्रैव शङ्कः श्रमणोपासकः जहां श्रमणोपासक शंख था, वहां आए, उबागच्छित्ता संखं समणोबासगं बंदंति तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य शङ्ख वहां आकर श्रमणोपासक शंख को वंदननमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एयमढं सम्म श्रमणोपासकं वन्दन्ते नमस्यन्ति, नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस विणएणं भुज्जो-भुज्जोखामेति। तएणं वन्दित्वा नमस्थित्वा एतमर्थं सम्यक् अर्थ के लिए सम्यक् विनयपूर्वक बार-बार ते समणोवासगा पसिणाई पुच्छंति, विनयेन भूयः भूयः क्षमयन्ति। ततः ते क्षमायाचना की। उस समय उन पुच्छित्ता अट्ठाइं परियादियंति, श्रमणोपासकाः प्रश्नान् पृच्छन्ति, श्रमणोपासकों ने प्रश्न पूछे। प्रश्न पूछकर परियादियित्ता समणं भगवं महावीरं पृष्ट्वा अर्थान् पर्याददते, पर्यादाय अर्थ को हृदय में धारण किया। हृदय में वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दन्ते धारण कर श्रमण भगवान् महावीर को जामेव दिसं पाउम्भूया तामेव दिसं नमस्यन्ति, वन्दित्वा नमस्थित्वा यस्याः वंदन नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर पडिगया॥
एव दिशः प्रादुर्भूताः तस्यामेव दिशि जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में लौट प्रतिगताः।
२७. भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं भदन्त इति! भगवान् गौतमः श्रमणं
महावीरं बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, एवं वयासी-पभू णं भंते ! संखे वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्-प्रभुः समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतियं मुडे भदन्त! शङ्खः श्रमणोपासक: भवित्ता अगाराओ अणगारियं देवानुप्रियाणाम् अन्तिकं मुण्डः भूत्वा पव्वइत्तए?
अगारात् अनगारितां प्रव्रजितुम्। नो इणद्वे समठे। गोयमा! संखे नो अयमर्थः समर्थः। गौतम ! शङ्खः समणोवासए बहूहिं सीलव्वय-गुण- श्रमणोपासकः बहुभिः शीलव्रत-गुण
२७. भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान महावीर
को 'भंते' ऐसा कहकर वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार कहा-भंते! क्या श्रमणोपासक शंख देवानुप्रिय के पास मुंड होकर अगार से अनगारता में प्रव्रजित होने में समर्थ है ? यह अर्थ संगत नहीं है। गौतम ! श्रमणो. पासक शंख बहुत शीलव्रत, गुण, विरमण,
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