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श. १२ : उ. ५ : सू. १२०,१२१
भगवई कम्मओ विभत्ति-पदं कर्मतः विभक्ति-पदम्
कर्म-विभक्ति पद १२०. कम्मओ णं भंते! जीवे नो कर्मतः भदन्त! जीवः नो अकर्मतः १२०. भंते ! क्या जीव कर्म से विभक्ति-भाव
अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ? विभक्तिभावं परिणमति? कर्मतः जगत् (नरक, मनुष्य आदि भव) में परिणमन कम्मओ णं जए नो अकम्मओ नो अकर्मतः विभक्तिभावं परिणमति? करता है, अकर्म से विभक्ति-भाव में विभत्तिभावं परिणमइ?
परिणमन नहीं करता? क्या जगत् कर्म से विभक्ति-भाव में परिणमन करता है? अकर्म से विभक्ति-भाव में परिणमन नहीं
करता? हंता गोयमा! कम्मओ णं जीवे नो हन्त गौतम! कर्मतः जीवः नो अकर्मतः हां! गौतम ! जीव कर्म से विभक्ति-भाव में अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ, विभक्तिभावं परिणमति, कर्मतः जगत् परिणमन करता है, अकर्म से नहीं, जगत् कम्मओ णं जए नो अकम्मओ नो अकर्मतः विभक्तिभावं परिणमति । कर्म से विभक्ति-भाव में परिणमन करता विभत्तिभावं परिणमइ॥
है, अकर्म से नहीं।
भाष्य
१. सूत्र १२०
चार गतियां-नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव। उन सबमें अनेक जीव हैं। एक गति में भी अनेक विभाग हैं। इस विभाग का हेतु क्या है? इस जिज्ञासा का समाधान कर्म सिद्धांत के द्वारा दिया गया। प्रत्येक जीव का स्वकृत कर्म होता है। उसके द्वारा ही कोई जीव नारक है, कोई तिर्यंच है कोई मनुष्य है और कोई देव। इस विभाग
का हेतु परिस्थिति नहीं है, बाहरी वातावरण नहीं है। यह विभाग किसी ईश्वरीय शक्ति द्वारा कृत नहीं है। इसका हेतु केवल कर्म है। वृत्तिकार ने जगत् का अर्थ जीव समूह या जंगम प्राणी किया है।' उणादि प्रकरण में जगत का अर्थ स्थावर जंगम लोक किया गया है।' इससे फलित होता है कि स्थावर जंगम अथवा वस और स्थावर का विभाग भी कर्म कृत है।
१२१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति॥
तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त ! इति।
१२१. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही
१. भ. वृ. १२/१२०-कम्मओ ण मित्यादि, कर्मतः सकाशानो अकर्मतः-न
कर्माणि विना जीवो 'विभक्तिभावं' विभागरूपं भावं नारकतिर्यग्मुनष्यामरभवेषु नानारूपं परिणाममित्यर्थः, 'परिणमति' गच्छति तथा कम्मओ णं जए ति गच्छति तांस्तान्नारकादिभावान्निति 'जगत्' जीव
समूहो जीवद्रव्यस्यैव वा विशेषो जंगमाभिधानो जगन्ति जंगमान्याहुरिति
वचनादिति। २. भिक्षु शब्दानुशासनम् उणादिप्रकरणम् १/१३४ जगत्-गम्लुं गतौ, गच्छन्ति
चराचरप्राणिनो उत्पद्यन्ते यस्मिन्-स्थावरजंगमो लोकः ।
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