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________________ मूल चंद-सूर-गण-पदं १२२. रायगिहे जाव एवं वयासी - बहुजणे णं भंते! अण्णमण्णस्स एवमाइक्खड़ जाव एवं परूवेई - एवं खलु राहू चंद गेहति, एवं खलु राहू चंद गेण्हति ॥ १२३. से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! जण्णं से बहुजणे अण्णमण्णस्स एवमाइक्खड़ जाव जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव एवं परूमि - एवं खलु राहू देवे महिडीए जाव महेसवे वरवत्थधरे वरमल्लधरे वरगंधधरे वराभरणधारी । राहुस्स णं देवस्स नव नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा - संघाडए जडिलए खतए खरए दद्दुरे मगरे मच्छे कच्छभे कण्हसप्पे । राहुस्स णं देवस्स विमाणा पंचवण्णा पण्णत्ता, तं जहा - किण्हा, नीला, लोहिया, हालिद्दा, सुक्किला। अत्थि काल राहुविमाणे खंजणवण्णाभे पण्णत्ते, अत्थि नीलए राहुविमाणे लाउयवण्णाभे पण्णत्ते, अत्थि लोहिए राहुविमाणे मंजिवण्णाभे पण्णत्ते, अस्थि पीत राहुविमाणे हालिवण्णाभे पण्णत्ते, अत्थि सुक्किलए राहुविमाणे भासरासिवण्णाभे पण्णत्ते । जदा णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउब्वमाणे वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं पुरत्थिमेणं आवरेत्ता णं पञ्चत्थिमेणं वीतीवयइ तदा Jain Education International छट्टो उद्देसो : छठा उद्देशक संस्कृ चंद्र-सूर-ग्रहण-पदम् राजगृहं यावत् एवमवादीत् - बहुजनः भदन्त ! अन्योऽन्यम् एवमाख्याति यावत् एवं प्ररूपयति- एवं खलु राहुः चन्द्रं गृह्णाति एवं खलु राहुः चन्द्रं गृहणाति । तत् कथमेतद् भदन्त ! एवम् ? गौतम ! यत् सः बहुजनः अन्योऽन्यम् एवमाख्याति यावत् ये एते - एवमाहुः मिथ्या ते एवमाहुः । अहं पुनः गौतम ! एवमाख्यामि यावत् प्ररूपयामि – एवं खलु राहुः देवः महर्द्धिकः यावत् महेशाख्यः वरवस्त्रधरः वरमाल्यधरः वरगन्धधरः वराभरणधारी । राहोः देवस्य नव नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-श्रृंगाटकः जटिलकः, 'खतए' खरक: दर्दुर: मकरः मत्स्यः कच्छपः कृष्णसर्पः। राहोः देवस्य विमानानि पञ्चवर्णानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - कृष्णानि, नीलानि, लोहितानि हारिद्राणि, शुक्लानि । अस्ति कालकं राहुविमानं खञ्जनवर्णाभं प्रज्ञप्तम्, अस्ति नीलकं राहुविमानं अलाबुकवर्णाभं प्रज्ञप्तम् अस्ति लोहितं राहुविमानं मञ्जिष्ठवर्णाभं प्रज्ञप्तम्, अस्ति पीतकं राहुविमानं हारिद्रवर्णाभं प्रज्ञप्तम्, अस्ति शुक्लकं राहुविमानं भस्मराशिवर्णाभं प्रज्ञप्तम् । यदा राहुः आगच्छन् वा गच्छन् वा विकुर्वाणः वा परिचारयमाणः वा चन्द्रलेश्यां पौरस्त्येन आवृत्य पाश्चात्येन व्यतिव्रजति तदा पौरस्त्येन For Private & Personal Use Only हिन्दी अनुवाद चंद्र-सूर्य ग्रहण पद १२२. राजगृह नाम का नगर यावत् इस प्रकार बोले- भंते! बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैं-राहु चंद्र को ग्रहण करता है, राहु चंद्र को ग्रहण करता है। १२३. भंते! यह कैसे है ? क्या ऐसा है ? गौतम ! जो बहुजन परस्पर इस प्रकार का आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। गौतम ! मैं इस प्रकार का आख्यान यावत् प्ररूपणा करता हूं-इस प्रकार राहुदेव महान् ऋद्धिवाला यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात, प्रवर वस्त्रधारक, प्रवर माल्यधारक, प्रवर गंध और प्रवर आभरणधारी होता है। राहुदेव के नौ नाम प्रज्ञप्त हैं, जैसे शृंगारक, जटिलक, क्षत्रक, खरक, दर्दुर मकर, मत्स्य, कच्छप और कृष्णसर्प । राहुदेव के विमानों के पांच वर्ण प्रज्ञप्त हैं, जैसे - कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत । कृष्ण राहुविमान का वर्ण खंजन के समान आभा वाला प्रज्ञप्त है, नील राहुविमान का वर्ण अलाबुक (तुम्बी) के समान आभा वाला प्रज्ञप्त है, रक्त राहुविमान का वर्ण मंजिष्ठ के समान आभा वाला प्रज्ञप्त है, पीत राहुविमान का वर्ण हरिद्रा के समान आभा वाला प्रज्ञप्त है। शुक्ल (श्वेत) राहुविमान का वर्ण शंख के ढेर के समान आभा वाला प्रज्ञप्त है। जब राहु आता हुआ, जाता हुआ विक्रिया करता हुआ अथवा परिचारणा करता हुआ चन्द्रलेश्या को पूर्व की ओर से आवृत कर पश्चिम की ओर जाता है, तब पूर्व में www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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