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________________ आमुख प्रस्तुत शतक का प्रारंभ पुनर्जन्म के नियमों से होता है। लेश्या पुनर्जन्म की व्याख्या का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है।' प्रस्तुत आगम के किसी भी शतक में एक विषय का प्रतिपादन नहीं है। इसमें प्रकीर्ण सिद्धांतों का संकलन किया गया है। पहले उद्देशक का संबंध पुनर्जन्म से है। दूसरे उद्देशक में उन्माद का एक बृहद् आलापक है। स्थानांग में उन्माद के दो प्रकार बतलाए गए हैं। प्रस्तुत शतक के सोलहवें सूत्र के साथ उसकी अक्षरशः तुलना होती है। ठाणं में उन्माद प्राप्ति के छह हेतु बतलाए हैं, उनमें भी यक्षावेश और मोहनीय कर्म से होने वाले उन्माद का उल्लेख है। सामान्य धारणा यह है-कोई दिव्य शक्ति किसी मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर उन्माद पैदा कर देती है। प्रस्तुत प्रकरण में इस विषय में एक नए रहस्य का उद्घाटन होता है। दिव्य शक्ति का शरीर में प्रवेश अनिवार्य नहीं है। वह अशुभ पुद्गलों का शरीर में प्रक्षेप कर उन्माद पैदा कर सकती है। यह तथ्य और विस्मयकारी है कि बड़े देव छोटे देवों में भी अशुभ पुदगलों का प्रक्षेप कर उन्माद पैदा कर सकते हैं। इससे भी अधिक विस्मयकारी तथ्य यह है कि पृथ्वीकायिक आदि सूक्ष्म जीवों में भी उन्माद पैदा किया जा सकता है।' छठे शतक में तमस्काय का निर्माण करने वाली तीन शक्तियों का उल्लेख है-देव, असुर और नाग।' प्रस्तुत शतक में देवेन्द्र ईशान के द्वारा तमस्काय के निर्माण की प्रक्रिया बतलाई गई है। विनय विधि (प्रोटोकाल) का एक लंबा प्रकरण है। देवों की विनय विधि का वर्णन बहुत ही रोचक है।" विनय विधि का वर्णन दसवें शतक में भी प्राप्त है। उसमें विमोहन का उल्लेख है किन्तु शस्त्र द्वारा आक्रमण का उल्लेख नहीं है। दोनों का तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है। प्रस्तुत शतक में नैरयिकों के प्रत्यनुभव का संक्षिप्त विवरण है। पूर्ण पाठ के लिए जीवाभिगम देखने का निर्देश है। अंग सूत्र में उपांग देखने का निर्देश सूचित करता है कि यह आलापक जीवाभिगम से प्रस्तुत आगम में संकलित है। परमाणु पुद्गल का निरूपण स्यावाद की पद्धति से किया गया है। परमाणु पुद्गल की चरम और अचरम अवस्थाओं को मान्य किया गया है। प्रज्ञापना में परमाणु पुद्गल के चरम और अचरम इन दोनों भंगों का निषेध है। केवल अवक्तव्य भंग ही मान्य है।" पांचवें उद्देशक में अंतराल गति का बहुत महत्त्वपूर्ण निरूपण किया गया है। भगवान् महावीर और गौतम का संबंध महावीर के जीवन वृत्त का एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग है। इसका आयारो तथा आयारचूला पर्युषणाकल्प आदि में उल्लेख न होना आश्चर्य की बात है। लव सप्तम देव", अनुत्तरोपपातिक देव, अव्याबाध देव और जूंभक देव" का वर्णन विलक्षण है। इस प्रकार का वर्णन अन्य आगमों में उपलब्ध नहीं है। देवेन्द्र शक्र द्वारा सिर का चूर्ण करना, फिर संधान कर देना और संबद्ध व्यक्ति को उसका आभास भी न होना एक आश्चर्यकारी घटना का विवरण है। आयुर्विज्ञान के क्षेत्र में बहुत विकास हुआ है पर इस दिव्य शक्ति के सामने अकिंचित्कर सा लगता है। १.भ., १४/१-२ २. ठाणं, २/७५ ३. ठाणं, ६/४३ ४. भ., १४/१८-२० ५. वही, ६/७६ ६. वही, १५/२५-२७ ७. वही, १४/२६-३६ ८. वही, १०/२४-३८ ६. वही, १४/४०-४२ १०. वही, १४/५१ ११. (क) पण्ण. १०/६ (ख) प्रज्ञा. वृ. प. २३५ १२. वही, १४/५४-६० १३. वही, १४/७७-७६ १४. वही, १४/८४-८५ १५. वही, १४/८६-८५. १६. वही, १४/११३-११४ १७. वही, १४/११७-१२१ १८. वही, १५/११५-११६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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