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श. १६ : उ. ३ : सू. ५०
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जयाचार्य ने आचारचूला को उद्धृत कर बतलाया है-मुनि गृहस्थ द्वारा की जाने वाली शल्य चिकित्सा की मन से भी वाञ्छा नहीं
करता।
५०. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ॥
१. (क) आ. चू. १३/१४/२६-२७ (ख) भ. जो. ढा. ३५१ गाथा १०८ - १०६.
मुनि तनु व्रणज थाय, गृहिछेदै शस्त्रे करी । मुनि मन करि वांछे नांहि, न करावै वच काय करि ॥ व्रण छटी न ताहि, राधि रुधिर कादै गृही । मुनि मन कर बांधै नांहि, न करावे बच काय करि ॥
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भगवई
आगम के उक्त पाठों के संदर्भ में वृत्तिकार द्वारा व्याख्यात शुभ क्रिया और मुनि द्वारा अनुमोदन - ये दोनों वाक्य विचारणीय
हैं।
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।
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