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________________ चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक मूल हिन्दी अनुवाद संस्कृत छाया नेरइयाणं निज्जरा-पदं नैरयिकाणां निर्जरा-पदम् ५१. रायगिहे जाव एवं वयासी-जावतियं राजगहं यावत एवमवादीत-यावत्कं णं भंते! अन्नगिलायए समणे निग्गंथे । भदन्त! अन्नग्लायकः श्रमणः निर्ग्रन्थः कम्मं निज्जरेति एवतिय कम्मं नरएसु कर्म निर्जीर्यति एतावत् कर्म नरकेषु नेरइया वासेण वा वासेहिं वा वाससएण नैरयिकाः वर्षेण वा वर्षेः वा वर्षशतेन वा वा खवयंति? क्षपयन्ति? नो इणढे समढे। नो एषः अर्थः समर्थः। जावतियं णं भंते! चउत्थभत्तिए समणे निग्गंथे कम्म निज्जरेति एवतियं कम्म निर्ग्रन्थः कर्म निर्जीर्यति एतावत् कर्म नरएसु नेरइया वाससएण वा वाससएहिं नरकेषु नैरयिकाः वर्षशतेन वा वर्षशतैः वा वाससहस्सेण वा खवयंति? वा वर्षसहस्रेण वा क्षपयन्ति? नो इणढे समझे। नो एषः अर्थः समर्थः। जावतियं णं भंते! छट्ठभत्तिए समणे यावत्कं भदन्त! षष्ठभक्तिः श्रमणः निम्गथे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्मं निर्ग्रन्थः कर्म निर्जीर्यति एतावत् कर्म नरएसु नेरइया वाससहस्सेण वा वास- नरकेषु नैरयिकाः वर्षसहस्रेण वा सहस्सेहिं वा वाससयसहस्सेण वा वर्षसहस्त्रैः वा वर्षशतसहस्रेण वा खवयंति? क्षपयन्ति? नो इणढे समझे। नो एषः अर्थः समर्थः। जावतियं णं भंते! अट्ठमभत्तिए समणे यावत्कं भदन्त! अष्टमभक्तिकः श्रमणः निग्गंथे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्म निर्ग्रन्थः कर्म निर्जीर्यति एतावत् कर्म नरएसु नेरइया वाससयसहस्सेण वा नरकेषु नैरयिकाः वर्षशतसहस्रेण वा वाससयसहस्सेहिं वा वासकोडीए वा वर्षशतसहौः वा वर्षकोट्या वा खवयंति? क्षपयन्ति? नो इणढे समझे। नो एषः अर्थः समर्थः। जावतियं णं भंते ! दसमभत्तिए समणे यावत्कं भदन्त! दशमभक्तिकः श्रमणः निग्गंथे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्मं निर्ग्रन्थः कर्म निर्जीर्यति एतावत् कर्म नरएसु नेरइया वासकोडीए वा वास- नरकेषु नैरयिकाः वर्षकोट्या वा कोडीहिं वा वासकोडाकोडीए वा वर्षकोटीभिः वा वर्षकोटाकोट्या वा खवयंति? क्षपयन्ति? नो इणढे समढे॥ नो एषः अर्थः समर्थः। नैरयिक का निर्जरा पद ५१. राजगह नगर यावत गौतम ने इस प्रकार कहा-भंते! रूक्षभोजी श्रमण-निग्रंथ जितने कर्मों की निर्जरा करता है-क्या नरकों में नैरयिक एक वर्ष, अनेक वर्ष अथवा सौ वर्षों में इतने कर्मों का क्षय करते हैं? यह अर्थ संगत नहीं है। भंते! चतुर्थ भक्त (उपवास) करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है-क्या नरक में नैरयिक इतने कर्मों का सौ वर्ष, सैकड़ों वर्ष अथवा हजार वर्ष में क्षय करते हैं? यह अर्थ संगत नहीं है। भंते ! षष्ठ भक्त (दो दिन का उपवास) करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है-क्या नरक में नैरयिक इतने कर्मों का हजार वर्ष में, हजारों वर्ष में अथवा लाख वर्ष में क्षय करते हैं? यह अर्थ संगत नहीं है। भंते! अष्टम भक्त (तीन दिन का उपवास) करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है-क्या नरक में नैरयिक इतने कर्मों का लाख वर्ष, लाखों वर्ष अथवा करोड़ वर्ष में क्षय करते हैं? यह अर्थ संगत नहीं है। भंते! दसम भक्त (चार दिन का उपवास) करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है-क्या नरक में नैरयिक इतने कर्मों का करोड़ वर्ष, करोड़ों वर्ष अथवा कोटाकोटि वर्ष में क्षय करते हैं? यह अर्थ संगत नहीं है। ५२. से केणटेणं भंते! एवं वुचइ-जावतियं तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- अन्नगिलायए समणे निग्गंथे कम्मं यावत्कं अन्नग्लायक: श्रमणः निर्ग्रन्थः निज्जरेति एवतियं कम्म नरएसु नेरइया कर्म निर्जीर्यति एतावत् कर्म नरकेषु ५२. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-रूक्षभोजी श्रमण-निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है-नरक में नैरयिक इतने कर्मों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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