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________________ श. १६ : उ. ४ : सू. ५२ ३६२ भगवई वासेण वा वासेहिं वा वाससएण वा नो नैरयिकाः वर्षेण वा वर्षेः वा वर्षशतेन वा खवयंति, जावतियं चउत्थभत्तिए-एवं तं नो क्षपयन्ति, यावत् चतुर्थभक्तिक:- चेव पुब्वभणियं उच्चारेयव्वं जाव एवं तत् चैव पूर्वभणितम् उच्चारयितव्यः वासकोडाकोडीए वा नो खवयंति? यावत् वर्षकोटाकोट्या वा नो क्षपयन्ति? गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे जुण्णे गौतम! अथ यथानामकः कश्चित् जीर्णः जराजज्जरियदेहे सिढिलतयावलितरंग- जराजर्जरितदेहः शिथिलत्वचवलितरङ्गसंपिणद्धगत्ते पविरल-परिसडिय-दंतसेढी ___ सम्पिनर गात्रः-प्रविरल-परिशटितउण्हाभिहए तण्हाभिहए आउरे झुसिए दन्तश्रेणिः उष्णाभिहतः तृष्णाभिहतः । पिवासिए दुब्बले किलंते एग महं कोसंब- ___ आतुरः 'झुसिए' पिपासितः दुर्बलः गंडियं सुकं जडिलं गंठिल्लं चिक्कणं क्लान्तः एका महती कोशाम्रकण्डिका वाइद्ध अपत्तियं मुंडेण परसुणा शुष्कां जटिलां ग्रन्थिमतीं 'चिक्कणं' अक्कमेज्जा, तए णं से पुरिसे महंताई- व्याविद्धम् अपात्रिकाम् मुण्डेन परशुना महंताई सदाई करेइ, नो महंताई-महंताई अवक्राम्येत्, ततः सः पुरुषः महतः दलाई अवदालेइ, एवामेव गोयमा! महतः शब्दान् करोति, नो महतः महतः नेरइयाणं पावाई कम्माई गाढीकयाई, दलान् अवदलयति, एवमेव गौतम! चिक्कणीकयाई, सिलिट्ठीकयाई, नैरयिकाणां पापानि कर्माणि खिलीभताई भवंति। संपगाढं पि य णं ते गाढीकृतानि, 'चिक्कणी'कृतानि, वेदणं बेदेमाणा नो महानिज्जरा नो श्लिष्टीकृतानि, खिलीभूतानि भवन्ति। महापज्जवसाणा भवंति। सम्प्रगाढाम् अपि ते वेदनां वेदयन्तः नो महानिर्जराः नो महापर्यवसानाः भवन्ति । का एक वर्ष, अनेक वर्ष अथवा सौ वर्षों में क्षय नहीं करते, चतुर्थ भक्त करने वाला श्रमण-निग्रंथ जितने कर्मों की निर्जरा करता है-इस प्रकार पूर्व कथित उच्चारणीय है, यावत् कोटाकोटि वर्ष में क्षय नहीं करता। गौतम! जैसे कोई पुरुष वृद्ध है, उसका शरीर जरा से जर्जरित है, त्वचा के शिथिल होने से चेहरे पर झुर्रियां पड़ गई हैं, दांतों की श्रेणी कहीं विरल हो गई है, कहीं दंत विहीन हो गई है। गर्मी से अभिहत, प्यास से अभिहत, आतुर, बुभुक्षित, पिपासित, दुर्बल और क्लांत है। वह पुरुष एक महान् कुसुंब वृक्ष की शुष्क, जटिल, गुंडीली, 'चिकनी', टेढ़ी, शाखा पर पत्ती-रहित कुंद फरसे से प्रहार करता है, तब वह पुरुष जोर जोर से शब्द करता है। किन्तु वह उस विशाल वृक्ष की शाखा के बड़े बड़े टुकड़े नहीं कर सकता। गौतम! इसी प्रकार नैरयिकों के कर्म गाढ़ किए हुए होते हैं, चिकने किए हुए होते हैं, संसृष्ट किए हुए होते हैं, और अलंध्य होते हैं। वे प्रगाढ वेदना का वेदन करते हुए भी महानिर्जरा वाले नहीं होते, महापर्यवसान वाले नहीं होते। जैसे कोई पुरुष अहरन को तेज शब्द, तेज घोष और निरन्तर तेज आघात के साथ हथौड़े से पीटता हुआ उस अहरन के स्थूल पुद्गलों का परिशाटन करने में समर्थ नहीं होता। गौतम! इसी प्रकार नैरयिकों के पाप कर्म गाढ़ रूप में किए हुए होते हैं, चिकने किए हुए होते हैं, संसृष्ट किए हुए होते हैं और अलंघ्य होते हैं। वे प्रगाढ़ वेदना का वेदन करते हुए भी महानिर्जरा वाले नहीं होते, महापर्यवसान वाले नहीं होते। से जहानामए केइ पुरिसे अहिकरणिं अथ यथानामकः कश्चित् अधिकरणीम् आउडेमाणे महया-महया सद्देणं, महया- आकुटन महता महता शब्देन, महता महया घोसेणं, महया-महया परंपरा- महता घोषेण, महता महता । घाएणं नो संचाएइ, तीसे अहिगरणीए परम्पराघातेन नो शक्नोति, तस्याः केइ अहाबायरे पोग्गले परिसाडित्तए, अधिकरण्याः काञ्चित् यथा बादरान् एवामेव गोयमा! नेरइयाणं पावाई पुद्गलान् परिशाटयितुम्, एवमेव कम्माइं गाढीकयाई, चिक्कणीकयाई, गौतम! नैरयिकाणां पापानि कर्माणि सिलिट्ठीकयाई खिलीभूताई भवंति। गाढीकृतानि, 'चिक्कणी' कृतानि, संपगाढं पि य णं ते वेदणं वेदेमाणा नो श्लिष्टीकृतानि, खिलीभूतानि भवन्ति। महानिज्जरा नो महापज्जवसाणा भवंति।। सम्प्रगाढाम् अपि च ते वेदनां वेदयन्तः नो महानिर्जराः नो महापर्यवसानाः भवन्ति। से जहानामए केइ परिसे तरुणे बलवं अथ यथानामकः कश्चित् पुरुषः तरुणः जाव मेहावी निउणसिप्पोवगए एगं महं बलवान् यावत् मेधावी निपुणशिल्पोपगतः सामलि-गंडियं उल्लं अजडिलं एकां महतीं शाल्मलि-कण्डिकाम् अगंठिल्लं अचिक्कणं अवाइद्धं सपत्तियं आर्द्राम् अजटिलाम् अग्रन्थिमतीम् तिक्वेण परसुणा अक्कमेज्जा, तए णं ___ 'अचिक्कणं' अव्याविद्धाम सपात्रिकाम से पुरिसे नो महंताई-महंताई सदाइं तीक्ष्णेण परशुना अवक्राम्येत्, ततः सः करेति, महंताई-महंताई दलाई पुरुषः नो महतः महतः शब्दान् करोति, अवद्दालेति, एवामेव गोयमा! समणाणं महतः महतः दलान् अवदलयति, निम्गंधाणं अहाबादराई कम्माई एवमेव गौतम! श्रमणानां निर्ग्रन्थानाम् जैसे कोई पुरुष तरुण, बलवान् यावत् निपुण और सूक्ष्म शिल्प से समन्वित है। वह पुरुष एक महान् शाल्मली की गंडिका आर्द्र, सरल, गांठ रहित, चिकनाई रहित, सीधी शाखा पर पत्ती सहित तीक्ष्ण हथौड़े से आक्रमण करता है, वह पुरुष बहुत जोर-जोर से शब्द नहीं करता किन्तु शाखा के बड़े-बड़े टुकड़े कर देता है। गौतम! इसी प्रकार श्रमण निग्रंथों के शिथिल रूप में किए हुए, निःसत्त्व किए हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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