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________________ भगवई ३५६ श. १६ : उ. ३ : सू. ४६ पुन्वाणुपुब्बिं चरमाणे गामाणुगामं दु. पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्रामं दवन् इज्ज-माणे सुहंसुहेणं विहरमाणे एगजंबुए सुखंसुखेन विहरन् एकजम्बुके समोसढे जाव परिसा पडिगया॥ समवसृतः यावत् परिषत् प्रतिगता। करते हुए एकजंबूक चैत्य में समवसृत हुए यावत् परिषद् लौट गई। ४६. भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं भदन्त इति! भगवान् गौतमः भगवन्तं ४६. अयि भंते! भगवान् गौतम ने श्रमण महावीरं वंदइ नमसइ, बंदित्ता नमंसित्ता महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, एवं वयासी-अणगारस्स णं भंते! नमस्यित्वा एवमवादीत्-अनगारस्य वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार कहा-भंते! भावियपणो छटुंछट्टेणं अणिरिश्वत्तेणं भदन्त! भावितात्मनः षष्ठषष्ठेन निरंतर बेले बेले तपःकर्म के द्वारा आतापन तबोकम्मेणं उ8 बाहाओ पगिज्झिय- अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा उर्ध्वं बाहाः भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर सूर्य के पगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए प्रगृह्य-प्रगृह्य सूराभिमुखे आतापन- सामने आतापना लेते हुए भावितात्मा अनगार आयावेमाणस्स तस्स णं पुरथिमेणं भूम्याम् आतापयतः तस्य पौरस्त्येन के लिए दिन के पूर्वार्द्ध में हाथ, पैर, भुजा अवढे दिवसं नो कप्पति हत्थं वा पादं वा अपार्धं दिवसं नो कल्पते हस्तं वा पादं और साथल का संकोचन अथवा फैलाव कल्प बाहं वा ऊरं आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा बाहुं वा उरुं वा आकुञ्चयितुं वा की सीमा में नहीं है-विहित नहीं है। दिन के वा, पचत्थिमेणं से अवढे दिवसं कप्पति प्रसारयितुं वा, पाश्चात्येन तस्य अपार्धं उत्तरार्ध में हाथ, पैर, भुजा और साथल का हत्थं वा पादं वा बाहं वा ऊळं वा दिवसं कल्पते हस्तं वा पादं वा बाहुं वा संकुचन अथवा फैलाव विहित है। उस आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा। तस्स णं उरुं वा आकुञ्चयितुं वा प्रसारयितुं वा। भावितात्मा अनगार के अर्श-मस्सा लटक रहा अंसियाओ लंबंति। तं च वेज्जे तस्य अर्शिकाः लम्बन्ते। तं वैद्यः । है। वैद्य ने उसे देखा, पैर सिकोड़ कर घुटनों अदक्खु। ईसिं पाडेति, पाडेत्ता अद्राक्षीत् ईषत् पातयति, पातयित्वा को ऊंचा कर भूमि पर लिटाया, लिटा कर अंसियाओ छिंदेज्जा। से नणं भंते! जे अर्शिकाः छिन्द्यात्। यः छिनत्ति तस्य अर्श-मस्से का छेदन किया। भंते! जो छेदन छिंदति तस्स किरिया कज्जति, जस्स क्रिया क्रियते, यस्य छिद्यते न तस्य करता है,उसके क्रिया होती है? जिसका छिज्जति नो तस्स किरिया कज्जति, क्रिया क्रियते, नान्यत्र एकेन । छेदन करता है, उसके एक धर्मान्तराय के णण्णत्थेगेणं धम्मतराएण? धर्मान्तरायिकेन? सिवाय अतिरिक्त क्रिया नहीं होती? हां, गौतम! जो छेदन करता है, उसके क्रिया हंता गोयमा! जे छिंदति तस्स किरिया हन्त गौतम! यः छिनत्ति तस्य क्रिया होती है। जिसका छेदन करता है, उसके एक कज्जति, जस्स छिज्जति नो तस्स क्रियते, यस्य छिद्यते नो तस्य क्रिया धर्मान्तराय के सिवाय क्रिया नहीं होती। किरिया कज्जति, णण्णत्थेगेणं क्रियते, नान्यत्र एकेन धर्मान्तरायिकेन। ५०. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। धम्मंतराएणं॥ भाष्य १. सूत्र ४८-४६ यदि वैद्य धर्म बुद्धि से क्रिया करता है तो वह शुभ है। यदि वह लोभ प्रस्तुत आलापक का संबंध मुनि की शल्य क्रिया से है। शल्य आदि की वृत्ति से करता है तो वह अशुभ है। क्रिया से पूर्व भावितात्मा मुनि की कायोत्सर्ग मुद्रा का वर्णन है। वह मुनि के क्रिया नहीं होती। उसके केवल धर्मान्तराय होता है। मुनि कायोत्सर्ग की मुद्रा में आतापन भूमि में खड़ा है। उसके मस्से वृत्तिकार ने धर्मान्तराय के दो अर्थ किए हैंलटक रहे हैं। किसी वैद्य ने देखा। उस मुनि को भूमि पर लिटाया और १. शुभध्यान का विच्छेद। उसकी शल्य क्रिया कर डाली। इसमें मुनि और वैद्य दोनों का संबंध है। २. अर्श-छेद की क्रिया का अनुमोदन।' इस विषय में सूत्र का वक्तव्य है-वैद्य क्रिया का भागी है, मुनि जयाचार्य का मत वृत्तिकार की व्याख्या से भिन्न है। उन्होंने क्रिया का भागी नहीं है, क्रिया का अर्थ है प्रवृत्ति। सूत्र में क्रिया के शुभ छेद-सूत्रों के संदर्भ में इस सूत्र की समीक्षा की है। निशीथ का उल्लेख और अशुभ होने का उल्लेख नहीं है। है-कोई मुनि के अर्श का छेदन करता है और मुनि उसका अनुमोदन वृत्तिकार ने वैद्य के द्वारा होने वाली क्रिया के दो रूप बतलाए हैं। करता है तो चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। १. भ. वृ. १६/४६-वैद्यस्य क्रिया व्यापाररूपा सा च शुभा धर्मबुद्ध्या छिन्दानस्य २. (क) निशीथ ३/३४ जे भिक्खू अप्पणो काय......। अंसियंसि वा......। लोभादिना त्वशुभा। क्रियते-भवति जस्स छिज्जईत्ति यस्य साधोरासि अण्णयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं.... अच्छिंदंतं या विच्छिंदतं वा सातिज्जति। छिद्यन्ते नो तस्य क्रिया भवति निर्व्यापारत्वात, किं सर्वथा क्रियाया अभावः? (ख) भ. जो. ढा. ३५१. गाथा ५७-५८ मुनिनी हरस छेदंत, लिहनै अनुमोदै मुनि। नैवमत आह-नन्नत्थेत्यादि, नेति योऽयं निषेधः, सोन्यत्रैकस्माद्धर्मान्तरायाद, दंड चउमासी हुँत, नशीत उद्देशे तीसरे॥ धर्मान्तरायलक्षणक्रिया तस्यापि भवतीति भावः । धर्मान्तरायश्च शुभध्यान अनुमोद्याई पाप, तो गृहि छेया पुण्य किम? विच्छेदादर्शश्छेदनानुमोदनाद्वेति।' जिन आज्ञा चित्त स्थाप, आज्ञा विण नहिं धर्म पुण्य॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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