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________________ भगवई ३०३ श. १५: स. १३०-१३२ अरहा केवली सवण्णू सव्वदरिसी इहेव अर्हत् केवली सर्वज्ञः सर्वदर्शी इहैव और सर्वदर्शी है। वे इस श्रावस्ती नगरी में सावत्थीए नगरीए हालाहलाए कुंभ- श्रावस्त्यां नगर्यां हालाहलायाः हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण में कारीए कुंभकारावणंसि आजीविय- कुम्भकार्याः कुम्भकारापणे आजीविक- आजीवक-संघ से संपरिवृत होकर आजीवकसंघसंपरिबुडे आजीवियसमएणं अप्पाणं संघपरिवृतः आजीविकसमयेन आत्मानं सिद्धांत के द्वारा अपने आपको भावित करते भावमाणे विहरइ, तं सेयं खलु मे कल्लं भावयन् विहरति, तत् श्रेयः खलु मे हुए विहार कर रहे हैं। इसलिए कल उषाकाल पाउप्पभाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावत् में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने गोसालं मखलिपुत्तं वंदित्ता जाव पज्जु- ज्वलति गोशालं मंखलिपुत्रं वन्दित्वा पर मंखलिपुत्र गोशाल को वंदना कर यावत् वासित्ता इमं एयारूवं वागरणं वागरित्तए यावत् पर्युपास्य इमम् एतद्रूपं व्याकरणं पर्युपासना कर यह इस प्रकार का व्याकरण त्ति कट्ट एवं संपेहेति, संपेहेत्ता कल्लं व्याकर्तुम् इति कृत्वा एवं सम्प्रेक्षते, पूछना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा ऐसी संप्रेक्षा पाउप्पभाए रयणीए जाव उद्वियम्मि सूरे सम्प्रेक्ष्य कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां की। संप्रेक्षा कर दूसरे दिन उषाकाल में पौ सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते यावद् उत्थिते सूरे सहस्ररश्मौ दिनकरे -फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के पहाए कयवलिकम्मे जाव अप्पमहग्या- तेजसा ज्वलति स्नातः कृतबलिकर्मा उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर स्नान भरणालंकियसरीरे साओ गिहाओ यावद् अल्पमहाभिरणालंकृतशरीरः किया, बलिकर्म किया यावत् अल्पभार और पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता स्वकात गृहात् प्रतिनिष्क्रामति, बहुमूल्य वाले आभूषणों से शरीर को अलंकृत पायविहारचारेणं सावत्थिं नगर प्रतिनिष्क्रम्य पादविहारचारेण श्रावस्ती कर अपने घर से प्रतिनिष्क्रमण किया। मज्झमज्झेणं जेणेव हालाहलाए नगरी मध्यमध्येन यत्रैव हालाहलायाः प्रतिनिष्क्रमण कर पैदल चलते हुए श्रावस्ती कुंभकारीए कुंभकारावणे तेणेव कुम्भकार्याः कुम्भकारापणः तत्रैव । नगरी के बीचोंबीच जहां हालाहला कुंभकारी उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गोसालं उपागच्छति, उपागम्य गोशालं का कुंभकारापण था, वहां आया, वहां आकर मंखलिपुत्तं हालाहलाए कुंभकारीए मंखलिपुत्रं हालाहलायाः कुम्भकार्याः हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण में कुंभकारावर्णसि अंबकूवगहत्थगयं कुम्भकारापणे आम्रकूणकहस्तगतं । मंखलिपुत्र गोशाल को हाथ में आम्रफल लेकर मज्जपाणगं पीयमाणं अभिक्खणं मद्यपानकं पिबन्तम्, अभीक्ष्णं मद्यपानक पीते हुए, बार-बार गाते हुए, गायमाणं, अभिक्खणं नञ्चमाणं, गायन्तम्, अभीक्ष्णं नृत्यन्तम्, अभीक्ष्णं बार-बार नाचते हुए, बार-बार हालाहला अभिक्खणं हालाहलाए कुंभकारीए हालाहलायाः कुम्भकार्याः अञ्जलिकर्मकुंभकारी से अंजलि-कर्म करते हुए मिट्टी के अंजलिकम्मं करेमाणं सीयलएणं मट्टिया कुर्वन्तं, शीतलकेन मृत्तिकापानकेन बर्तन में रहे हुए शीतल आतञ्जल जल से पाणएणं आयंचिण-उदयएणं गायाई 'आयंचिण'-उदकेन गात्राणि अपने गात्र का परिसिंचन करते हुए देखा, परिसिंचमाणे पासइ, पासित्ता लज्जिए परिसिञ्चन्तं पश्यति दृष्ट्वा लज्जितः । देखकर लज्जित हुआ, उसकी लज्जा प्रगाढ़ विलिए विड्डे सणियं-सणियं पच्चोसक्कइ॥ 'वीलिए' वीडितः शनैः-शनैः होती चली गई। वह धीरे-धीरे पीछे सरक प्रत्यवष्वष्कते। गया। १३०. तए णं ते आजीविया थेरा अयंपूलं आजीवियोवासगं लज्जियं जाव पच्चोसक्कमाणं पासइ, पासित्ता एवं वयासी-एहि जाव अयंपुला! इतो॥ ततः ते आजीविकाः स्थविराः अयम्पुलम् १३०. आजीवक-स्थविरों ने आजीवक उपासक आजीविकोपासकं लज्जितं यावत् अयंपुल को लज्जित यावत् पीछे सरकते हुए प्रत्यवष्वष्कमाणं पश्यति, दृष्ट्वा देखा, देखकर इस प्रकार कहा-अयंपुल! यहां एवमवादीत्-एहि तावत् अयम्पुल! इतः। आओ। १३१. तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए ततः सः अयम्पुलः आजीविकोपासकः १३१. आजीवक-उपासक अयंपुल आजीवकआजीवियथेरेहिं एवं वुत्ते समाणे जेणेव आजीविकस्थविरैः एवम् उक्तः सन् स्थविरों के इस प्रकार कहने पर जहां आजीविया थेरा तेणेव उवागच्छइ, यत्रैव आजीविकाः स्थविराः तत्रैव __ आजीवक-स्थविर थे, वहां आया, आकर उवागच्छित्ता आजीविए थेरे बंदइ नमसइ, उपागच्छति, उपागम्य आजीविकान् आजीवक स्थविरों को वंदन-नमस्कार वंदित्ता नमंसित्ता नचासन्ने जाव पज्जुव- स्थविरान् वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा किया, वंदन-नमस्कार कर न अति दूर और सिइ॥ नमस्यित्वा न अत्यासन्नः यावत् पर्युपास्ते। न अति निकट-यावत् पर्युपासना करने लगा। १३२. अयंपुलाति! आजीविया थेरा अयम्पुल! अयि! आजीविकाः स्थविराः १३२. अयि अयुपुल! आजीवक स्थविरों ने Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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